धनवान बनने से बेहतर है दरिद्रता का जीवन

Edited By ,Updated: 22 Apr, 2015 07:56 AM

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जब मनुष्य का मन धन के लोभ में पड़ जाता है तो वह विषयों के चक्कर में फंसकर स्वयं को भूल जाता है अर्थात उसे और कुछ नहीं सूझता। वह दिन रात सिर्फ धन के संग्रह के विषय में सोचता है।

जब मनुष्य का मन धन के लोभ में पड़ जाता है तो वह विषयों के चक्कर में फंसकर स्वयं को भूल जाता है अर्थात उसे और कुछ नहीं सूझता। वह दिन रात सिर्फ धन के संग्रह के विषय में सोचता है।

प्रत्येक व्यक्ति मालामाल होने के स्वप्न देखता है और इसके लिए वह हर संभव प्रयास करता है। धन पाने की लालसा में वह अपना इमान तक दांव पर लगा देता है। धन-संपत्ति के साथ-साथ प्रतिष्ठा, निरोगता, सद्बुद्धि, सुख, शांति और वैभव की प्राप्ति सभी के लिए संभव नहीं हो पाती। ऐसा धन किस काम का जिसे पाने के लिए आपको अपना स्वाभिमान भी दांव पर लगाना पड़ा हो। इस संदर्भ में चाणक्य कहते हैं की
 
अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवन्तु मे।।
 
अर्थ : जो धन अति कष्ट से प्राप्त हो, धर्म का त्याग करने से प्राप्त हो, शत्रुओं के सामने झुकने अथवा समर्पण करने से प्राप्त हो, ऐसा धन हमें नहीं चाहिए।। 11।।
 
भावार्थ : जो धन सत्कर्मों से प्राप्त हो, अच्छे आचरण से प्राप्त हो, बिना किसी दबाव के प्राप्त हो, वही धन श्रेष्ठ होता है और स्वाभिमान के लायक होता है। आत्मसम्मान को नष्ट करने वाले धन की अपेक्षा धन का न ही होना अच्छा है।
 
धनवान बनने से बेहतर है दरिद्रता का जीवन क्योंकि लोभ की गठरी बड़ी ही विचित्र है, इसके बोझ -भार का अनुमान लगाना कठिन है,जीव की अनंत कामनाएं होती है और जितना लोभ बढ़ता है, इंसान अभिमानवश अपने आप से उतना ही गिरता जाता है। मानवीय धर्म से चुक जाता है,सत्कर्मों से वंचित हो जाता है। इसी लोभासक्ति के कारण वह संसार के राग -द्वेष, मेरा-तेरा के चक्कर में पड़ा हुआ हमेशा दुखी रहता है।

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