हिन्दू धर्म में अंतिम संस्कार के कार्य पुत्र ही क्यों करे, जानें महत्वपूर्ण जानकारी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 19 Feb, 2018 02:41 PM

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मानव जीवन में सोलह प्रकार के संस्कारों में सबसे अंतिम संस्कार अंत्येष्टि क्रिया संस्कार है। इसमें मृत्यु के पश्चात शव को अग्रि प्रदान करके उसकी दाह क्रिया सम्पन्न की जाती है। दशगात्र-विधान, षोडश-श्राद्ध, सपिण्डीकरण आदि क्रियाएं भी इसी के अंतर्गत आती...

मानव जीवन में सोलह प्रकार के संस्कारों में सबसे अंतिम संस्कार अंत्येष्टि क्रिया संस्कार है। इसमें मृत्यु के पश्चात शव को अग्रि प्रदान करके उसकी दाह क्रिया सम्पन्न की जाती है। दशगात्र-विधान, षोडश-श्राद्ध, सपिण्डीकरण आदि क्रियाएं भी इसी के अंतर्गत आती हैं। मानव दो प्रकार के शरीर में जीता है। एक सूक्ष्म शरीर, दूसरा स्थूल शरीर। स्थूल शरीर को हम देख, स्पर्श, अनुभव कर सकते हैं लेकिन सूक्ष्म शरीर को हम केवल अनुभव कर सकते हैं। मनुष्य का सूक्ष्म शरीर 17 पदार्थों- 5 कर्मेन्द्रिय, 5 ज्ञानेन्द्रिय, 5 प्राणवायु, मन और बुद्धि को लेकर स्थूल शरीर में प्रवेश करता है और मृत्यु के पश्चात इन्हीं सत्रह पदार्थों को लेकर जीव स्थूल शरीर से निकल जाता है।


जब जीव स्थूल शरीर से निकलता है तो सूक्ष्म शरीर की रक्षा के लिए उसे एक वायवीय शरीर मिलता है। इसी से जीव गति को प्राप्त करता है। सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से निकलते ही तत्काल वह वायवीय शरीर को ग्रहण करता है। वह स्थूल शरीर की अपेक्षा हल्का हो जाता है। चूंकि स्थूल शरीर में अधिक समय तक निवास करने के कारण शरीर के साथ उसका अनुराग हो जाता है अत: वह बार-बार वायुप्रधान शरीर के द्वारा पूर्व शरीर के सूक्ष्मावयवों के साथ रहने का प्रयत्न करता है। इससे मुक्ति के लिए दशगात्रादि श्राद्ध क्रियाएं शास्त्रों में बताई गई हैं।


मृत आत्मा की वासना धरती में गड़े हुए तथा कहीं सड़ते हुए शरीर पर न जाए और उससे जीव की मुक्ति हो जाए, इसलिए शरीर को जलाने की प्रथा है। अग्नि संस्कार से मृत शरीर पांच तत्वों का ऋण चुकाता है। फिर भस्मरूप का गंगा में विसर्जन कर दिया जाता है। फिर मृत आत्मा का संबंध पूर्व शरीर से टूट जाता है। इसके पश्चात श्राद्ध क्रियाओं द्वारा प्रदत्त सामग्रियों से तृप्त होकर वह प्रेत शरीर को छोड़ देता है।


शव को स्नान कराना, पुष्प बिखेरना, माला पहनाना, शाल ओढ़ाना, शव यात्रा में सम्मिलित होना आदि श्रद्धा के सूचक हैं। चिता में नारियल, चंदन, देसी घी, शुद्ध केसर, स्वर्ण आदि का प्रयोग करना प्रदूषण से बचाने के लिए हैं लेकिन मंत्रोच्चारण के साथ अंतिम संस्कार आत्मा की शांति के लिए है।


दाह कर्म में चिता पर रखे गए मृतक का सिर उत्तर तथा पैर दक्षिण दिशा में रखने का विधान है। चिता में अग्नि देने से पहले मृतक का पुत्र जल से भरे कलश को अपने बाएं कंधे पर लेकर शव की एक परिक्रमा सिर से आरंभ करके करता है व परिक्रमा पूरी होने पर उसे नीचे गिराकर मटका फोड़ देता है।


स्वाभाविक जिज्ञासा हो सकती है कि मृत्यु के पश्चात अंतिम संस्कार के कार्यों को पुत्र ही क्यों करे? पिता के वीर्य से उत्पन्न पुत्र पिता के समान ही व्यवहार वाला होता है। हिन्दू धर्म में पुत्र का अर्थ है ‘पु’ नामक नरक से ‘त्र’ त्राण करना। पिता को नरक से निकालकर उत्तम स्थान प्रदान करना ही ‘पुत्र’ का कर्म है। यही कारण है कि पिता की समस्त और्द्व दैहिक क्रियाएं पुत्र ही करता है।

 
यजुर्वेद में अंत्येष्टि कर्म करने वालों के विषय में कहा गया है कि जो मनुष्य अंत्येष्टि विधिपूर्वक करते हैं वे सब प्रकार से परिवार का मंगल करने वाले होते हैं। अत: जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर की मुक्ति के लिए मृत्योपरांत संस्कार का विधान किया गया है जिसका प्रभाव सूक्ष्म शरीर पर अवश्य पड़ता है। 
 

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