Edited By ,Updated: 06 Jan, 2017 03:11 PM
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युद्धस्व विगतज्वर:।।
गीता के
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युद्धस्व विगतज्वर:।।
गीता के इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि अपने मन को आत्मा में स्थिर करके, सभी तरह के कामों को मुझे समर्पित करके, इच्छा, मोहमाया और भावनाओं की तपिश से बाहर आकर युद्ध करो।
कर्म के वक्त इंसान के तीन भाव होते हैं। पहला, किए जा रहे काम से मिलने वाले फल की इच्छा। दूसरा, इस भाव से कोई कर्म करना कि वह मैं ही कर रहा हूं और तीसरा, कर्म न करने पर मिलने वाली सजा की वजह से काम करना। जब तक इन तीनों में से एक भी भाव है, तब तक कर्म का बंधन आपको बांधता रहेगा क्योंकि तीनों में काम को करने की भावना या अहंकार का भाव बना रहता है।
यह भाव तब तक बना रहेगा, जब तक हम अपने कर्मों को परमात्मा को अर्पित नहीं करेंगे। जैसे ही हम यह सोचेंगे कि हम जो काम कर रहे हैं वह भगवान के चरणों में समर्पित है, तभी अंदर से इच्छा, मोह और डर निकल जाएगा और हमारा मन खुद-ब-खुद शांत हो जाएगा। शांत चित को भगवान की साधना से आत्मा में स्थिर करना सरल है लेकिन यदि कर्मों में काम को करने का या आसक्ति का भाव बना रहेगा तो मन शांत नहीं होगा।
इसलिए हम जब भी कोई काम करें, थोड़ा अपने मन पर भी ध्यान दें और सोचें कि यदि इस कर्म में मेरी इच्छा, मोह या डर है, तो मन के इस बुरे भाव को बदलने की कोशिश करें। ऐसा करते ही कर्म तो वही रहेगा लेकिन अब वही कर्म आपको आनंद देने वाला बन जाएगा।