Edited By ,Updated: 08 Dec, 2016 12:21 PM
10 दिसम्बर श्री गीता जयंती पर विशेष
वेदों और उपनिषदों के ज्ञान को लोक व्यवहार की दृष्टि से समझाने के लिए महर्षि वेद व्यास जी ने महाभारत रूपी ज्ञान निधि ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ के भीष्म पर्व में सब जीवों में आत्मा के रूप में
10 दिसम्बर श्री गीता जयंती पर विशेष
वेदों और उपनिषदों के ज्ञान को लोक व्यवहार की दृष्टि से समझाने के लिए महर्षि वेद व्यास जी ने महाभारत रूपी ज्ञान निधि ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ के भीष्म पर्व में सब जीवों में आत्मा के रूप में विराजमान साक्षात् परब्रह्म श्री कृष्ण जी ने, कौरवों तथा पांडवों के बीच हुए भयंकर युद्ध के प्रारंभ होने से पूर्व, अर्जुन को कर्तव्य मार्ग का उपदेश दिया। वह ज्ञान श्रीमद भगवद् गीता के नाम से जगत प्रसिद्ध हुआ।
भगवद्गीता जी को स्वयं महर्षि वेद व्यास जी ने महाभारत रूपी ज्ञान निधि से निकला हुआ अमृत कहा।
भारतामृतसर्वस्वं विष्णोर्वक्त्रा द्विनि : सृतम्।
धर्म शाश्वत जीवन मूल्यों का प्रतीक है। अर्जुन भगवान श्री कृष्ण जी से धर्म के विषय में ही पूछ रहे हैं
‘‘पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढ़ चेता:’’
भगवान कहते हैं ‘‘योगस्थ: कुरु कर्माणि’’
अर्थात : योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर।
‘‘योग : कर्मुसु कौशलम्।’’
अर्थात : कर्मों में कुशलता ही योग है।
भगवद् गीता जी का संन्यास संसार को त्यागने वाला संन्यास नहीं है।
‘‘ज्ञेय : स नित्य संन्यासी यो न दृेष्टि न काङ्क्षति।’’
हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है। इसलिए जिसे संन्यास कहते हैं उसे ही योग जान।