Edited By Punjab Kesari,Updated: 05 Mar, 2018 10:08 AM
कहते हैं कि मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं। अत: जिस मनुष्य के विचार उसके नियंत्रण में हैं, वह सुखी है और जिसके विचार उसके नियंत्रण में नहीं रहते, वह सदा दुखी रहता है।
कहते हैं कि मनुष्य के विचार ही मनुष्य को सुखी और दुखी बनाते हैं। अत: जिस मनुष्य के विचार उसके नियंत्रण में हैं, वह सुखी है और जिसके विचार उसके नियंत्रण में नहीं रहते, वह सदा दुखी रहता है। ऐसा व्यक्ति अक्सर अपने दुख का कारण खुद को नहीं, किसी व्यक्ति, वस्तु या बाह्य पदार्थ को मानता है। आधुनिक मनोविज्ञान में इसे आरोपण की क्रिया कहते हैं।
विचारों की इस मलिनता के परिणामस्वरूप उसके आसपास का वातावरण भी दूषित हो जाता है और मित्र भी शत्रु बन जाते हैं तथा सफलता भी विफलता में परिणत हो जाती है। मनोचिकित्सकों के अनुसार ऐसा चिंतन जिसका कोई उद्देश्य न हो, जिसे करने से कोई सार्थक परिणाम सामने न आए, सिवाय तनाव के, वही व्यर्थ चिंतन है और उसी का परिणाम चिंता, तनाव, अवसाद, ब्लड प्रैशर, सिरदर्द, बेचैनी, अनिद्रा आदि के रूप में सामने आता है।
अत: हमें इस बात के प्रति पूरी तरह से सतर्क रहना चाहिए कि हमारे मन मस्तिष्क में किस प्रकार के विचार आ-जा रहे हैं। अन्यथा गंदे और निरुपयोगी विचार मन मस्तिष्क में उठकर वैसे ही गंदे, निरुपयोगी कामों में मनुष्य को कार्यरत कर देते हैं। ऐसे विचारों को रोकने और निकाल फैंकने में प्रारंभ में तो हमें कठिनाई अवश्य होगी, किंतु थोड़े-से ही अभ्यास से यह कार्य सरल हो जाता है।
कहा जाता है कि आत्मा के कमजोर होने के दो मुख्य कारण हैं, एक ज्यादा बोलना और दूसरा ज्यादा सोचना। अत: हमें अपनी वाणी का उपयोग आवश्यकता अनुसार एवं प्रसंग देखकर ही करना चहिए। इसके साथ-साथ हमें व्यर्थ चिंतन को संपूर्णत: समाप्त करने के लिए शुभ संकल्पों की गति को बहुत तेज करना चाहिए। जब हम संकल्पों को श्रेष्ठ व शक्तिशाली बना लेंगे तो हमारे कर्म भी अपने आप श्रेष्ठ बन जाएंगे।