भविष्य का ऐसा संकेत देकर भगवान विष्णु चले गए, योगमाया ने दिखाया चमत्कार

Edited By ,Updated: 21 Apr, 2017 03:40 PM

miracles of lord vishnu

भारत के मरुप्रदेश (मारवाड़) में ऋषि उतंक निर्जन स्थान में आश्रम बनाकर रहते थे। समस्त सांसारिक मोह-माया से दूर, वह विष्णु भगवान की

भारत के मरुप्रदेश (मारवाड़) में ऋषि उतंक निर्जन स्थान में आश्रम बनाकर रहते थे। समस्त सांसारिक मोह-माया से दूर, वह विष्णु भगवान की भक्ति तथा तपस्या करते थे। उनकी बहुत दिनों की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु उतंक के आश्रम में आए और कहा, ‘‘मुनिवर! आप सब प्रकार की मोह-माया से मुक्त इस रेतीले प्रदेश में मेरी भक्ति में लगे रहते हैं। मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूं। आप इच्छानुसार वर मांगिए।’’


अपने सामने साक्षात् भगवान विष्णु को खड़े देखकर उतंक ने कहा, ‘‘प्रभो! आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। मेरी तपस्या सफल हुई। मेरी कोई कामना नहीं है। आप मुझ पर इतनी कृपा करें कि मेरी बुद्धि सदा आपके ध्यान तथा धर्म-कर्म में लगी रहे।’’


विष्णु ने कहा, ‘‘मुनीश्वर! यह तो तुम्हें बिना मांगे ही मिल गया है। मैं अपनी ओर से लोक-कल्याण के लिए तुम्हें एक कार्य सौंपता हूं। शीघ्र ही धुंधु नामक राक्षस इस मरु प्रदेश में छिपकर ऐसा उत्पात मचाएगा कि मानव, देव, यक्ष, गंधर्व सब त्राहि-त्राहि करने लगेंगे। उसके वध के लिए आप इक्ष्वाकु वंशी राजा के पास जाकर प्रार्थना करना। मैं योगशक्ति से उनके शरीर में प्रविष्ट होकर धुंधु का वध करूंगा। वह राजा ‘धुंधुमार’ के नाम से यश प्राप्त करेगा।’’


भविष्य का ऐसा संकेत देकर भगवान चले गए। कुछ दिनों के बाद उतंक ने देखा कि मरु प्रदेश में एक पहाड़ जैसा रेत का ऊंचा टीला उभर आया है। ऐसा लगता था जैसे कभी-कभी उसके भीतर से प्रचंड वायु का वेग निकलता था और सारे मरुप्रदेश को रेत कणों से ढक कर अंधकार कर देता था। उस क्षेत्र में जैसे तूफान आ जाता था। जो भी थोड़ा बहुत जनजीवन था, वह अस्त-व्यस्त हो जाता था।


उतंक मुनि का आश्रम भी उसके उत्पात से अछूता न रहा। उनकी तपस्या में विघ्न पडऩे लगा। उन्हें याद हो आया कि विष्णु भगवान ने ऐसी बात कही थी। अवश्य ही धुंधु राक्षस ने यहां छिपकर अपने ऊपर रेत का पहाड़ खड़ा कर लिया है तथा अपने श्वास-प्रश्वास तथा शरीर की हलचल से उत्पात करता है। भगवान विष्णु के बताए उपाय से इस राक्षस का वध करवाना चाहिए।


यह सोचकर वह इक्ष्वाकु वंशी राजा वृहदश्व के पास गए और रेत में छिपे धुंधु के उत्पात के बारे में बताया तो राजा वृहदश्व ने कहा, ‘‘मुनिवर! आपने राजा को उसके कर्तव्य की याद दिलाई, इसके लिए मैं आपका आभारी हूं। प्रजा का कष्ट दूर करना हमारा धर्म है, परंतु मैंने अपने पुत्र कुवलाश्व को राज्य सौंप कर वानप्रस्थ जीवन बिताने का निश्चय किया है। यह राज-धर्म अब मेरा पुत्र कुवलाश्व पूरा करेगा। आपका अभीष्ट निष्फल नहीं होगा।’’


उतंक ऋषि ने वर्तमान राजा कुवलाश्व को धुंधु की सारी बात बताई। कुवलाश्व ने कहा, ‘‘मुनिदेव! मैं जानता हूं, धुंधु वरदान प्राप्त असुर है, पर उसे चाहे जो वरदान मिला हो, उसका पाप, अत्याचार उत्पाद ही उसका नाश करेगा। आप हमें आशीर्वाद दीजिए और मार्गदर्शन कीजिए। हम धुंधु का वध करेंगे।’’


राजा के पुत्रों तथा सेना ने पहाड़ के चारों ओर से घेरकर खोदना शुरू कर दिया। अपने ऊपर कुछ हलचल होती महसूस कर धुंधु घोर गर्जन कर रेत के पहाड़ के नीचे से निकला। उसके निकलते ही कुवलाश्व की बहुत सारी सेना तो रेत में दब गई और अनेकों राजकुमार उसके मुंह से निकलती अग्रि-ज्वाला से भस्म हो गए।


अपनी सेना तथा पुत्रों की ऐसी मृत्यु देख राजा कुवलाश्व क्रोध में भर उठे। उनके तेजोमय शरीर को देखकर ऐसा लगा जैसे भगवान विष्णु अपनी योगमाया से उनके शरीर में प्रविष्ट हो गए हैं। कुवलाश्व ने अपने योगबल से धुंधु की मुखाग्रि को बुझा दिया और एक ही दिव्यास्त्र से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।


उस राक्षस को मारकर कुवलाश्व ऋषि उतंक के पास आए और कहा, ‘‘मुनिवर! धुंधु को हमने मार दिया। आप तथा प्रजा अब सुख-शांति से बिना विघ्न-बाधा के अपना कार्य करें।’’


उतंक ने राजा को आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘‘राजन! आपका कल्याण हो। आज से आप ‘धुंधुमार’ के नाम से यश प्राप्त करेंगे। जनहित के लिए किया गया आपके पुत्रों तथा सैनिकों का यह बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा।’’


(पदम् पुराण से)
(‘राजा पाकेट बुक्स’ द्वारा प्रकाशित ‘पुराणों की कथाएं’ से साभार)

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