Edited By ,Updated: 01 Dec, 2016 08:01 AM
विभुसेन उदार और प्रजावत्सल राजा थे। उन्होंने राज्य के शिल्पकारों की दुर्दशा देखकर एक बाजार लगवाया। उन्होंने घोषणा करवाई कि संध्याकाल तक जो कलाकृति अनबिकी रह जाएगी, उसे वह
विभुसेन उदार और प्रजावत्सल राजा थे। उन्होंने राज्य के शिल्पकारों की दुर्दशा देखकर एक बाजार लगवाया। उन्होंने घोषणा करवाई कि संध्याकाल तक जो कलाकृति अनबिकी रह जाएगी, उसे वह स्वयं खरीद लेंगे। एक दिन बाजार में एक शिल्पकार की सभी मूर्तियां बिक गईं, सिवाय एक के।
वह मूर्ति अलक्ष्मी की थी। शिल्पकार उसे लेकर राजा के पास पहुंचा। मंत्री राजा के पास था। उसने सलाह दी कि अलक्ष्मी की मूर्ति देखकर लक्ष्मी जी नाराज हो सकती हैं। लेकिन राजा अपने वचन से बंधे थे, इसलिए उन्होंने वह मूर्ति खरीद ली।
दिन भर के कार्यों से निवृत्त होकर राजा जब सोने चले, तो उन्होंने रोने की आवाज सुनी। राजा ने देखा कि बेशकीमती वस्त्र-आभूषण से सुसज्जित एक स्त्री रो रही है। राजा ने कारण पूछा, तो जवाब मिला, मैं लक्ष्मी हूं। आज अलक्ष्मी की मूर्ति लाकर आपने मेरा अपमान किया। आप उसको महल से बाहर निकालें।
राजा ने यह कहते हुए मना कर दिया कि वह वचन से बंधे हैं। यह सुनकर लक्ष्मी चली गईं। राजा लौटने लगे, तभी फिर आहट हुई। मुड़कर देखा, तो वहां नारायण खड़े थे। उन्होंने कहा, आपने मेरी पत्नी लक्ष्मी का अपमान किया है। इसलिए मुझे भी जाना ही होगा।
राजा फिर अपने कक्ष में जाने को मुड़े। तभी एक और दिव्य आकृति पर उनकी निगाह पड़ी। आप भी इस महल को छोड़कर जाना चाहते हैं, तो चले जाइए, लेकिन मैं अपने धर्म से पीछे नहीं हट सकता, राजा ने कहा। वह आकृति बोली, मैं धर्मराज हूं। मैं आपको छोड़कर कैसे जा सकता हूं। उसी रात राजा ने सपने में देखा कि नारायण और लक्ष्मी उनसे कह रहे थे, राजन, जहां धर्म है, वहीं हमारा ठिकाना है। हम वापस लौट रहे हैं।