Edited By Punjab Kesari,Updated: 18 Nov, 2017 09:57 AM
विनोबा भावे के बचपन की घटना है। उनका मित्र भी उनके घर में साथ रहा करता था। कभी-कभी घर में बासी भोजन बचा रहना स्वाभाविक है। उनकी माता भोजन फैंकने के विरुद्ध थीं इसलिए बचा भोजन मिल-झुल कर थोड़ा-थोड़ा खा लिया जाता था
विनोबा भावे के बचपन की घटना है। उनका मित्र भी उनके घर में साथ रहा करता था। कभी-कभी घर में बासी भोजन बचा रहना स्वाभाविक है। उनकी माता भोजन फैंकने के विरुद्ध थीं इसलिए बचा भोजन मिल-झुल कर थोड़ा-थोड़ा खा लिया जाता था। ऐसे अवसर पर माता विनोबा को बासी भोजन देकर उनके मित्र को ताजा खिलाने का प्रयास करती थीं। विनोबा को इस पर कोई आंतरिक विरोध नहीं था।
किंतु परिहास में उन्होंने मां से कहा, ‘‘मां, आपके मन में अभी भेद है।’’ मां प्रश्रवाचक दृष्टि से उनकी ओर देखने लगीं। विनोबा ने हंसते हुए कहा, ‘‘मां देखो न, आप मुझे बासी भोजन देती हो और मेरे साथी को ताजा।’’ मां की उदारता को पक्षपात की संज्ञा देकर विनोबा ने परिहास किया था किंतु माता ने उसे दूसरे ढंग से लिया। बोलीं, ‘‘बेटा, तू ठीक कहता है। मानवीय दुर्बलताएं मुझमें भी हैं। तुझमें अपना बेटा दिखता है तथा अग्यागत में अतिथि।’’
इसे ईश्वर रूप अतिथि मानकर सहज ही मेरे द्वारा यह पक्षपात हो जाता है। तुझे बेटा मानने के कारण तेरे प्रति अनेक प्रकार का स्नेह मन में उठता है। जब तुझे भी सामान्य दृष्टि से देख सकूंगी तब पक्षपात की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। बात कहीं की कहीं पहुंच गई थी, पर विनोबा को प्रसन्नता हुई। माता का एक और उज्ज्वल पक्ष उनके सामने आया।
समाज के संतुलन तथा आध्यात्मिकता की पकड़ का महत्वपूर्ण सूत्र उन्हें मिल गया। पक्षपात मनुष्य के अंत:करण को सहन नहीं होता। व्यक्ति अभाव स्वीकार कर लेता है, पक्षपात नहीं। अपने आप को पक्षपात से मुक्त अनुभव करने वाला अंत:करण ही संतोष का अनुभव करता है। बालक विनोबा ने माता की शिक्षा गांठ बांध ली। संत विनोबा जी की समदर्शिता का यही गुण विकसित होकर समाज में आज भी व्यापक प्रभाव डाल रहा है।