‘भारतीय सुधार’ के प्रणेता : विजयानंद सूरीश्वर जी महाराज

Edited By ,Updated: 28 Mar, 2017 11:48 AM

predator of indian reform vijaynand surishwar ji maharaj

28 मार्च जन्म जयंती पर विशेष भारतीय संस्कृति की श्रमण परंपरा के महान आचार्य श्री विजयानंद सूरि उन्नीसवीं शताब्दी के ‘भारतीय सुधार’ के प्रणेता गुरुओं व

28 मार्च जन्म जयंती पर विशेष


भारतीय संस्कृति की श्रमण परंपरा के महान आचार्य श्री विजयानंद सूरि उन्नीसवीं शताब्दी के ‘भारतीय सुधार’ के प्रणेता गुरुओं व नेताओं में गिने जाते हैं। महर्षि दयानंद सरस्वती व स्वामी रामकृष्ण परमहंस के समकालीन, आचार्य विजयानंद, जिन्हें उत्तर भारत में उनके प्रसिद्ध नाम ‘आत्माराम’ के नाम से जाना जाता है, अपने युग के महान मनीषी, लेखक एवं प्रवक्ता तथा तत्त्ववेता धर्मगुरु थे। आचार्य विजयानंद सूरि (आत्माराम जी) का जन्म जीरा जिला फिरोजपुर से आधा मील के अंतर पर स्थित लहरा गांव के कपूर क्षत्रिय परिवार में चैत्रसुदी प्रतिपदा विक्रमी संवत् 1893 (गुजराती पंचांग के अनुसार 1892) तदनुसार 1936 ई. गुरुवार के शुभ दिन हुआ था। उत्तर भारत में इसी तिथि को नए संवत् का श्रीगणेश होता है। अत: स्वाभाविक था कि ऐसे महत्वपूर्ण दिन अवतरित होने वाला व्यक्ति एक नए युग का सूत्रपात करने वाला होगा। 


मानव को उसकी महानता दर्शा कर, मानवीय गौरव बढ़ाकर, उसे आत्मदर्शन की महान साधना में लगाकर परम हित एवं कल्याण ही उनके जीवन का मात्र उद्देश्य रहा। उनके व्यवहार में नम्रता, सौजन्यता, सत्यता और साहस का समावेश था। अपने प्राणों की उपेक्षा करके भी दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव था। विजयानंद जी उन महापुरुषों में से एक थे, जिन्होंने सत्य, अहिंसा और त्याग-तपस्या को अपने जीवन का विशिष्ट अंग बना कर उसका सजीव उज्ज्वल आदर्श प्रस्तुत किया और मानव जगत को जीवन के वास्तविक लक्ष्य की ओर बढऩे का दिव्य संदेश दिया। जीरा में साधुओं के आगमन के बाद आत्माराम जी प्रतिदिन उनके दर्शन के लिए जाने लगे। वहां जाने से उनके हृदय में शांति के भाव उत्पन्न होते और वे कई घंटों तक वहीं बैठे रहते। साधुओं ने उस तेजस्वी नवयुवक को वैराग्य का उपदेश देना शुरू किया और उन्हें अनुभव होने लगा कि वास्तविक सुख भोग में नहीं बल्कि स्वार्थ को सर्वथा छोड़ कर दूसरों का भला करने में है।


चतुर्मास समाप्त होने पर आत्माराम साधुओं के साथ ही वहां से रवाना हुए और मालेरकोटला पहुंचे। वहां मार्गशीर्ष सुदी पंचमी वि.सं. 1910 ई. सन् 1854 को महाराज जीवन राम जी से हजारों लोगों की उपस्थिति में उन्होंने साधु के व्रत अंगीकार किए। दीक्षा महोत्सव बड़े समारोह से संपन्न हुआ। दीक्षा के प्रथम क्षण से ही उन्हें पढऩे और अपने ज्ञान बढ़ाने का, मानो, एक व्यसन-सा लग गया था। उनकी बुद्धि बहुत तीक्ष्ण और निर्मल थी। वह ज्ञान की प्राप्ति के लिए कहीं भी किसी भी व्यक्ति से पढऩे को तैयार थे। सच्चे ज्ञान की खोज में उन्होंने साधना की, जगह-जगह भ्रमण किया और भिन्न-भिन्न साधु व श्रावक विद्वानों से विनयपूर्वक विद्याभ्यास किया। 


तत्कालीन युग को जागृत करने और प्रबुद्ध करने के लिए उन्होंने अनेक ग्रंथों का सृजन किया। उस समय जब आधुनिक खड़ी बोली का रूप निखरा नहीं था, उन्होंने इसी खड़ी बोली हिंदी में अपने सभी ग्रंथों, पूजाओं, स्तवनों और सज्झायों की रचना की। जैन ग्रंथों का आपके हाथों से बहुत उद्धार हुआ है। जहां आपकी ओजस्वी और प्रभावशाली लेखनी की प्रशंसा के लिए असाधारण शब्दों की आवश्यकता है, वहीं प्रशस्त जीवन में आपने बहुत से ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें ‘जैन तत्वादर्श’, ‘अज्ञान तिमिर भास्कर’, ‘जैन प्रश्नोत्तर’, ‘तत्वनिर्णय प्रासाद’, ‘शिकागो प्रश्नोत्तर’, ‘जैनमत वृक्ष’, ‘सम्यक्त्व शल्योद्धार’ एवं ‘जैन धर्म का स्वरूप’ ये ग्रंथ अत्यंत प्रामाणिक, ऐतिहासिक एवं पठनीय हैं।

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