अपना हाथ परमात्मा के हाथ में देने के लिए तैयार हैं तो चलें इस राह पर...

Edited By ,Updated: 02 Dec, 2016 03:38 PM

sant vani

मनुष्यता को समर्पित संत वाणी मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह नाम दीक्षा ले कर गुरु तो धारण करता है परंतु

मनुष्यता को समर्पित संत वाणी
मनुष्य का यह स्वभाव है कि वह नाम दीक्षा ले कर गुरु तो धारण करता है परंतु अपने मन के फैलाए हुए माया जाल से मुक्त नहीं होता। तो वह गुरु के मुख से उच्चारित अमृतमय वचनों को समग्रता से अपने हृदय में नहीं उतारता अपितु उसमें से उसके मन को जो ठीक लगता है उसे वह पकड़ लेता है और शेष को छोड़ देता है। अब सत्गुरुओं ने यह उच्चारा है कि :

‘‘सिमरन में सब सुख बसे, सिमरन में हरि आप। वहां नामी निवास है, जहां नाम का जाप।।’’


ईश्वर से संबंध जोड़ कर उसका अनंत सुख पाने का माध्यम है उसके नाम का स्मरण करना, नाम में वह नामी ईश्वर वैसे ही विराजमान है जैसे फूल में उसकी सुगंध।
तो मनुष्य नाम की पूंजी इकट्ठी करने लगा। कोई कापियों में राम-राम लिखने लगा। कोई राम लिखे की चादर ओढऩे लगा। कोई आए-गए को राम-राम कहने लगा। लोग दुख में, उलझनों में, भय-भ्रांतियों में, विकारों में, उत्तेजनाओं में राम-राम कहने लगे, वे नाम के स्मरण को जाप बना कर अपने ऊपर आरोपित करने लगे। वे जहर भरे कटोरे में अमृत भरने लगे। वे अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए और दूसरों का अहित तक करने के लिए ईश्वर का भजन करने लगे। 

 

तो कहना यह है कि : ‘‘राम नाम जान्यो नहीं, भई पूजा  में हानि। कहे कबीर क्यों मानहि, यम के किंकर कानि।।’’


ईश्वर के नाम को हमने जाना नहीं है, केवल माना है और मान कर ही हम उसका जप-सिमरन करने लगे हैं। नाम तो बीज की तरह है। जैसे बीज में से फूलों और फलों का प्रकट होना बहुत सी संभावनाओं पर निर्भर करता है, वैसे ही नाम का स्मरण करते हुए परमात्मा का सुख, शांति-आनंद मिलना बहुत सी संभावनाओं पर आश्रित है। ऐसे में कोई ऐसा मार्गदर्शक गुरु रूप में चाहिए जो ईश्वर की सुगंध से महक रहा है, जिसका एक हाथ अब परमात्मा के हाथ में है और जो हमें तैयार कर सके ताकि हम भी अपना हाथ परमात्मा के हाथ में दे सकें।

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