आखिर क्यों श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र को दिए अदृश्य नेत्र, क्या देखना चाहते थे वो

Edited By ,Updated: 16 May, 2017 02:26 PM

shri krishna fulfill dhritarashtra wish

पांडवों के वनवास और अज्ञातवास की अवधि पूरी होने पर भी दुर्योधन ने जब युद्ध के बिना सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने से इंकार कर दिया तो युद्ध निश्चित हो गया, पर युद्ध में भीषण संहार

पांडवों के वनवास और अज्ञातवास की अवधि पूरी होने पर भी दुर्योधन ने जब युद्ध के बिना सुई की नोक के बराबर भी भूमि देने से इंकार कर दिया तो युद्ध निश्चित हो गया, पर युद्ध में भीषण संहार होगा-यह विचार कर महाभारत-युद्ध को टालने के अंतिम प्रयास के रूप में भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के दूत बनकर दुर्योधन को समझाने के उद्देश्य से हस्तिनापुर गए। वहां उन्होंने दुर्योधन को बहुत समझाया कि वह पांडवों को पांच गांव ही देकर संधि कर ले परन्तु हठधर्मी दुर्योधन ने उनकी सब बातें अस्वीकार कर दीं। उलटे वह कर्ण आदि अपने मित्रों से सलाह करने लगा कि श्रीकृष्ण को पकड़ कर कारागार में डाल दिया जाए। इस बात को जानकर भगवान श्रीकृष्णचंद्र ने अपना विराट रूप प्रकट किया। उन्होंने दुर्योधन से कहा, ‘‘दुर्बुद्धि दुर्योधन! तू मोहवश जो मुझे अकेला मान रहा है और इसलिए मेरा तिरस्कार करके जो मुझे पकडऩा चाहता है यह तेरा अज्ञान है। देख सब पांडव यहीं हैं। अन्धक और वृष्णिवंश के वीर भी यहीं मौजूद हैं। आदित्यगण, रुद्रगण तथा महर्षियों सहित वसुगण भी यहीं हैं।’’


ऐसा कह कर वे उच्च स्वर से अट्टहास करने लगे। हंसते समय उन महात्मा श्रीकृष्ण के श्री अंगों में स्थित विद्युत के समान कान्ति वाले तथा अंगूठे के बराबर छोटे शरीर वाले देवता आग की लपटें छोडऩे लगे। उनके ललाट में ब्रह्मा और वक्ष:स्थल में रुद्र देव विद्यमान थे। समस्त लोकपाल उनकी भुजाओं में स्थित थे। उनके मुख से अग्रि की लपटें निकल रही थीं।


आदित्य, साध्य, वसु, अश्विनी कुमार, इंद्र सहित मरुद्गण, विश्वेदेव, यक्ष, गंधर्व, नाग और राक्षस भी उनके विभिन्न अंगों में प्रकट हो गए। उनकी दोनों भुजाओं से बलराम और अर्जुन प्रकट हो गए। उनकी दाहिनी भुजा में अर्जुन और बाईं में हलधर बलराम विद्यमान थे। भीमसेन, युधिष्ठिर तथा नकुल-सहदेव भगवान के पृष्ठभाग मेें स्थित थे।
प्रद्युम्र आदि वृष्णिवंशी तथा अंधकवंशी योद्धा हाथों में विशाल आयुध लिए भगवान के अग्रभाग में प्रकट हुए। शंख, चक्र, गदा, शक्ति, शाङ्र्ग धनुष, हल तथा नंदक नामक खड्ग-ये ऊपर उठे हुए समस्त आयुध श्रीकृष्ण की अनेक भुजाओं में दैदीप्यमान दिखाई देते थे।


उनके नेत्रों से, नासिका के छिद्रों से और दोनों कानों से सब ओर अत्यंत भयंकर धूमयुक्त आग की लपटें प्रकट हो रही थीं। समस्त रोमकूपों से सूर्य के समान दिव्य किरणें छिटक रही थीं। श्रीकृष्ण के उस स्वरूप को देखकर  समस्त राजाओं के मन में भय समा गया और उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए। द्रोणाचार्य, भीष्म, परम बुद्धिमान विदुर, महाभाग संजय तथा तपस्या के धनी महर्षियों को भगवान जनार्दन ने स्वयं ही दिव्य दृष्टि प्रदान की थी जिससे वे उनका दर्शन करने में समर्थ हो सके थे।


धृतराष्ट्र ने प्रार्थना की कि भगवन्! मेरे नेत्रों का तिरोधन हो चुका है परन्तु आज मैं आपसे पुन: दोनों नेत्र मांगता हूं। केवल आपका दर्शन करना चाहता हूं आपके सिवा और किसी को मैं नहीं देखना चाहता।


तब महाबाहु जनार्दन ने धृतराष्ट्र से कहा, ‘‘कुरुनंदन! आपको दो अदृश्य नेत्र प्राप्त हो जाएं।’’


इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से उनके विश्वरूप का दर्शन करने के लिए धृतराष्ट्र को भी नेत्र प्राप्त हो गए। उस समय भगवान श्रीकृष्ण के विराट रूप धारण करने से सारी पृथ्वी डगमगाने लगी, समुद्र में खलबली मच गई और समस्त भूपाल अत्यंत विस्मित हो गए। उस समय सभा भवन में भगवान श्रीकृष्ण का वह परम आश्चर्यमय रूप देखकर देवताओं की दुन्दुभियां बजने लगीं और उनके ऊपर फूलों की वर्षा होने लगी। तदनन्तर शत्रुओं का दमन करने वाले श्रीकृष्ण ने अपने इस स्वरूप को उस दिव्य, अद्भुत एवं विचित्र ऐश्वर्य को समेट लिया।
 

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