कुछ इस तरह जमता है श्री आनंदपुर साहिब में होला महल्ला का रंग, जानिए इतिहास

Edited By ,Updated: 13 Mar, 2017 08:27 AM

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श्री आनंदपुर साहिब का होला अथवा ‘खालसे का होला महल्ला’ शब्द जुबान पर आते, विचारते और कानों में पड़ते ही एक बार वीर रस का वातावरण अपने आप छा जाता है।

श्री आनंदपुर साहिब का होला अथवा ‘खालसे का होला महल्ला’ शब्द जुबान पर आते, विचारते और कानों में पड़ते ही एक बार वीर रस का वातावरण अपने आप छा जाता है। कभी श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज द्वारा उच्चरित वीर-रसी बाणी दिलो-दिमाग पर घर करती हुई कई विलक्षण वीर-योद्धे समक्ष कतार में खड़े कर देती है, जिन्होंने गुरु जी के एक-एक शब्द को कंठ किया और अपने आप पर आजमाया भी। उनके लिए अपने गुरु का हर वचन एक आदेश था, जिसके लिए उन्होंने सिख धर्म की रक्षा करते हुए अपने आप को न्यौछावर कर दिया। ‘होला’ वास्तव में अरबी और ‘महल्ला’ फारसी भाषा के शब्द हैं। ‘होला’ का अर्थ है ‘हमला’ एवं ‘महल्ला’ के ‘जाइ हमला’। ‘होली’ विशेष रूप में हमारे भारत का मौसमी त्यौहार ही है और फाल्गुन के महीने मनाए जाने  के कारण इसको ‘फाग’ भी कहा जाता है। समय के साथ इस मौसमी त्यौहार के साथ कई ऐतिहासिक-मिथिहासिक किस्से जुड़ गए, जिसके कराण इसको बहुपक्षीय महत्ता प्रदान हो गई।


प्रति वर्ष चेत वदी एक को दुनिया भर में गुरु के सिंहों का श्री आनंदपुर साहिब की तरफ सिख जत्थों के विलक्षण और आलौकिक दृश्य इसकी धीमी हुई गति को फिर गतिशील रूप में ले आते हैं। श्री गुुरु गोबिंद सिंह जी ने होली को होला बनाकर नई ऋतु आने का पैगाम दबी-कुचली जनमानस को दिया। इस वर्ण-भेद पर गहरी चोट मारने के लिए गुरु साहिब ने होले को एक हथियारों को चलाने का दिन ऐलान किया। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने होले की महत्ता कायम रखने के लिए जनमानस को यकीन दिलाया कि आज भी परमात्मा उसी तरह रक्षा कर सकता है जैसे होली के दिन भक्त प्रह्लाद की की थी, सिर्फ सच्चे मन से पुकारने की जरूरत है। लोगों को सबसे पहले यही दर्शाने की जरूरत थी कि हमला किस समय और किस जगह करना है। यदि किसी को इसकी समझ आ जाए तो आधी जंग जीती गई समझो। होला ‘हूल’ से बना कहा जाता है। हूल का अर्थ तलवार की नोक भी है। भले काम के लिए जूझना, कृपाण की नोक (धार) पर चलना ही है। संत एवं सिपाही दोनों ही कृपाण की धार पर चलते हैं। होला भट्ठी में पक गए को भी कहते हैं। होला भट्ठी में डालकर लोगों को दृढ़ चित्त करके पकाना ही था।


होले के दिन गुरु जी फौजों की दो टुकडिय़ां (दल) बनाकर जंग-अभ्यास करवाते और तलवारबाजों एवं जंगबाजों के कर्तव्य फौजों को दिखाते हैं। जीतने वाली फौजी टुकड़ी के सिंहों को सिरोपा देते। होला-महल्ला नौजवानों द्वारा जवानियां भेंट करने का दिन भी बन गया। होले महल्ले का मुख्य लक्ष्य था श्रद्धालुओं को फौजी प्रशिक्षण करवाना। महान कोश के कर्ता भाई कान्ह सिंह नाभा के मुताबिक ‘‘होला महल्ला हमला और जाय हमला, हल्ला और हल्ले की जगह, श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के खालसे को शस्त्र और युद्ध विद्या में निपुण करने के लिए यह रीति चलाई थी कि दो दल बनाकर मुख्य सिंहों के नेतृत्व में एक खास जगह पर कब्जा करने के लिए हमला करना। कलगीधर पिता जी इस मसनूई (बनावटी)युद्ध का नजारा देखते और दोनों दलों को शुभ शिक्षा देते थे और जो दल कामयाब होता उसको दीवान में सिरोपा बख्शीश करते।’’


शूरवीरता, निडरता तथा चढ़दी कला के इस प्रवाह को सदीवता प्रदान करने के लिए खालसे की सृजना से केवल एक वर्ष बाद दशमेश पिता जी ने होलगढ़ नामक किला बनाकर संवत् 1757 चेत बदी एक को होला-महल्ला खेलने की रीति आरम्भ कर दी। ‘होले-महल्ले’ के जलूस को महल्ला निकालना अथवा महल्ला चढऩा भी कहा जाता है। रिवायत के अनुसार पहले तीन दिन श्री कीरतपुर साहिब में दीवान लगते हैं तथा गुरुद्वारा साहिबान की यात्रा की जाती है। उसके बाद संगत श्री आनंदपुर साहिब एकत्र होती है और दो दिन दीवानों में कथा-कीर्तन तथा व्याख्यान का आनंद लेती है। गुरुद्वारा प्रबंध द्वारा लाखों यात्रियों की रिहायश एवं लंगर का प्रबंध अच्छे ढंग से किया जाता है। आने-जाने, पानी, बिजली, सफाई और डाक्टरी सुविधाओं का बहुत अच्छा प्रबंध होता है।


अंतिम दिन बाद दोपहर पांच प्यारे साहिबान तख्त श्री केसगढ़ साहिब ‘महल्ले’ का अरदासा कर संगत सहित किला आनंदगढ़ साहिब पहुंचते हैं और वहां निहंग सिंहों के सभी जत्थे नीले और पीले वस्त्रों में पूरी तरह शस्त्रों से लैस हो हाथी और घोड़ों पर सवार होकर जयकारे गुंजाते एक अद्वितीय उत्साह से नगाड़े की चोटें लगाते हुए वीर रस में मार्च निकालते हैं। खालसई शान और आलौकिक नजारे दर्शाते और संगत में नया जोश और जागरूकता भरता यह जलूस किला लोहगढ़ एवं माता जीतो जी के देहुरे की यात्रा करता हुआ चरण गंगा के खुले रेतीले मैदान में पहुंच जाता है। इस मैदान में घुड़दौड़, नेजाबाजी, गतका और शस्त्र-विद्या के कई विलक्षण कर्तव्य दिखाए जाते हैं। शाम को गुरु के महल, गुरुद्वारा भोरा साहिब, थड़ा साहिब, गुरुद्वारा दमदमा साहिब और गुरुद्वारा शीश गंज साहिब की यात्रा करते हुए तख्त श्री केसगढ़ साहिब पहुंच कर होले-महल्ले की समाप्ति का अरदासा किया जाता है।


इस तरह खालसे का होला-मोहल्ला वीर रसी रिवायतों का प्रतीक है और हमें हर वर्ष दृढ़ विश्वासी, प्रभु भक्ति और ऊंचे शुद्ध मानवीय आदर्शों के लिए जुल्म, जब्र, नास्तिकता व भ्रष्टाचार के विरुद्ध जूझने के लिए नया जोश व जागरूकता प्रदान करता है। एक सिंह को अपने आदर्श याद रखने और दूसरों को याद करवाने का मौका भी देता है।  

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