कृष्णावतार

Edited By ,Updated: 06 Nov, 2016 12:31 PM

sri krishna

अर्जुन आगे का वृत्तांत सुनाते हुए बोले, ‘‘इसके बाद मैंने उससे कहा, ‘‘तुम्हें तो देवाधिदेव भगवान महादेव जी का उपकार मानना चाहिए कि मेरे स्थान पर मेरे बड़े दादा भीमसेन

अर्जुन आगे का वृत्तांत सुनाते हुए बोले, ‘‘इसके बाद मैंने उससे कहा, ‘‘तुम्हें तो देवाधिदेव भगवान महादेव जी का उपकार मानना चाहिए कि मेरे स्थान पर मेरे बड़े दादा भीमसेन जी यहां युद्ध करने नहीं आए। अगर कहीं वह आ जाते तो तुम्हें संधि या सुलह का झंडा लहराने का भी अवसर न देते। वह तो एकदम सैंकड़ों हाथियों के बल के साथ टूट पड़ते तुम्हारे नगर पर और सब कुछ तोड़-फोड़ करके तुम सब लोगों को यमलोक पहुंचाए बिना सांस भी न लेते।’’ 

 

अर्जुन के ये कथन सुन कर सब लोग समझ गए कि अर्जुन ने भीमसेन को प्रसन्न करने के लिए ही ऐसा कहा है और इसीलिए सब एक साथ हंस पड़े। भीमसेन ने भी प्यार से अर्जुन की पीठ पर एक धौल जमाई और बोले, ‘‘नटखट कहीं का।’’

 

धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा, ‘‘अर्जुन, यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुमने देवराज इंद्र को प्रसन्न करके सभी देवताओं के दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिए हैं और इससे भी अधिक सौभाग्य की बात यह है कि तुमने अपने देवताओं की कृपा और युद्ध कौशल की बदौलत जगदम्बा भवानी और भगवान रुद्र के दर्शन किए और उनसे वरदान एवं उनके प्रलंयकारी पाशुपत अस्त्र प्राप्त कर लिए। अब तो मुझे इस बात का पूरी तरह विश्वास हो गया है कि हम पांचों मिल कर सारी पृथ्वी पर धर्म के साम्राज्य की भी स्थापना कर सकेंगे और दुर्योधन एवं कौरवों को भी अपने अधीन करने में हम समर्थ हैं।’’

 

यह सुन कर अर्जुन हाथ जोड़ कर बोले, ‘‘मैं जो कुछ भी कर पाया हूं, वह सब आप लोगों के आशीर्वाद और छोटे दादा द्वारा दी गई प्रेरणा तथा प्रोत्साहन से ही कर सका हूं।’’

 

‘‘उन दिव्य अस्त्रों को देखने की हम सबकी प्रबल इच्छा है, जो तुमने देवाधिदेव महादेव जी से प्राप्त किए हैं।’’ धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा। 

 

यह सुन कर अर्जुन ने दिव्य अस्त्रों की करामात सब भाइयों और द्रौपदी को दिखाने का विचार किया। पहले तो वह स्नान करके शुद्ध हुए और इसके बाद उन्होंने अपने अंगों में दिव्य कांतिमान कवच धारण किया। एक हाथ में गांडीव धनुष और दूसरे हाथ में शंख लिया।     
(क्रमश:)

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