कृष्णावतार

Edited By ,Updated: 04 Dec, 2016 03:16 PM

sri krishna

युधिष्ठिर की बात सुन कर वह पुरुष बोला, ‘‘बेटा, मैं पूर्व जन्म में तुम्हारा पूर्वज हंस नामक राजा था। मैंने अनेकों यज्ञ किए, घोर तपस्या की, स्वाध्याय भी किया और अपने मन तथा इन्द्रियों

युधिष्ठिर की बात सुन कर वह पुरुष बोला, ‘‘बेटा, मैं पूर्व जन्म में तुम्हारा पूर्वज हंस नामक राजा था। मैंने अनेकों यज्ञ किए, घोर तपस्या की, स्वाध्याय भी किया और अपने मन तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की। इन सब सद्कर्मों और अपने पराक्रम से मुझे तीनों लोकों का ऐश्वर्य प्राप्त हुआ जिस कारण मुझे अहंकार हो गया और मैं सीधे-सच्चे लोगों तथा ऋषियों-मुनियों का अपमान करने लगा। 

 

इस पर क्रुद्ध होकर अगस्त्य मुनि ने मुझे श्राप दे कर इस अवस्था में पहुंचा दिया था। मुझे इस अवस्था में देखकर मुनिवर को दया आ गई और उन्होंने कहा कि तुम्हारे ही वंश में युधिष्ठिर नामक परमप्रतापी राजा होंगे। वह अपनी धर्म परायणता के कारण ‘धर्मराज’ के नाम से जगत में प्रसिद्ध होंगे। उनके दर्शन होने से तुम्हारा उद्धार हो जाएगा। तुम्हारा पाप समाप्त हो जाएगा तथा तुम अपना पहला रूप धारण करने के बाद अपने सद्कर्मों का फल भोगोगे। तुम गंधमादन पर्वत पर जाकर रहो जब वह तीर्थयात्रा करते हुए वहां आएंगे तब तुम्हें उनके दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होगा।’’

 

उस पुरुष ने आगे कहा, ‘‘तब से मैं इसी गुफा में यहां रहता हूं। आज तुम्हारे इस भाई भीम में अपने वंश के सभी लक्षण देखकर पहले तो यही समझा कि यही युधिष्ठिर है परंतु इसके सहस्र हाथियों जैसे बल का स्वामी होने पर मैं यह समझ गया कि इतना बलवान पुरुष हर समय नीति और धर्म का ध्यान नहीं रख सकता इसलिए मैंने इसे इसी आशा से पकड़ लिया कि तुम इसे छुड़ाने आओगे।’’
 

उस पुरुष ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारे दर्शन करके मैं कृतार्थ हुआ। मेरी जो स्थिति तुम देख चुके हो उससे तुम्हें और तुम्हारे इस भाई को कम से कम इतना बोध तो अवश्य हो जाना चाहिए कि धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य का अभिमान अत्यंत दुखदायी और विनाशकारी होता है। सद्कर्मों के कारण मैं स्वर्गलोक का राजा बन गया था और दिव्य विमान में बैठ कर आकाश में विचरता रहता था। उस समय अहंकार के कारण मैं किसी को भी कुछ नहीं समझता था। ब्रह्मर्षि, देवता, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और मानव सभी मुझसे डरते थे। उन दिनों मेरी दृष्टि में इतनी शक्ति थी कि जिसकी ओर भी मैं नेत्र उठाकर देख लेता उसका तेज भी छीन लेता था। मेरा अन्याय यहां तक बढ़ गया था कि एक सहस्र ऋषियों को मेरी पालकी ढोनी पड़ती थी।’’     
(क्रमश:)
 

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