रामकृष्ण की कृपा से शारदा हुईं श्रीमां, बेलुर मठ में है भव्य मंदिर

Edited By ,Updated: 19 Jan, 2017 12:35 PM

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अमूमन शारदा देवी अधिक जप आदि नहीं करती थीं लेकिन उस दिन वह लगातार जप किए जा रही थीं। लोग उनसे मिलने आते लेकिन उन्होंने किसी से कोई बात नहीं की। बस जप किए जा रही थीं।

अमूमन शारदा देवी अधिक जप आदि नहीं करती थीं लेकिन उस दिन वह लगातार जप किए जा रही थीं। लोग उनसे मिलने आते लेकिन उन्होंने किसी से कोई बात नहीं की। बस जप किए जा रही थीं। सूर्योदय से शुरू हुआ उनका जप देर रात को जाकर पूर्ण हुआ। अंतत: जब उनके एक शिष्य ने हिम्मत करके उनसे इतने जप का कारण पूछा तो उन्होंने अपने एक शिष्य की ओर इशारा करते हुए कहा कि लोग आते हैं। मंत्र दीक्षा ले जाते हैं लेकिन उसे पूरा नहीं करते। अगर शिष्य ने कोई काम अधूरा छोड़ा है तो वह काम गुरु को पूरा करना पड़ता है। 


इतना सुनते ही वह भक्त शर्मिंदा हो गया और क्षमा मांगते हुए नियमित जप करने का संकल्प लिया। भारत के सुप्रसिद्ध संत स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक सहधर्मिणी थीं शारदा देवी। रामकृष्ण संघ में वह ‘श्रीमां’ के नाम परिचित हैं। शारदा देवी का जन्म 22 दिसम्बर 1853 को बंगाल प्रांत स्थित जयरामबाटी नामक ग्राम के एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ। 


उनके पिता रामचंद्र मुखोपाध्याय और माता श्यामासुंदरी देवी कठोर परिश्रमी, सत्यनिष्ठ एवं भगवद् परायण थे। केवल 6 वर्ष की उम्र में इनका विवाह श्री रामकृष्ण से कर दिया था। दक्षिणेश्वर स्थित नहबत का दक्षिणी भाग, शारदा देवी यहां एक छोटे से कमरे में रहती थीं। अठारह वर्ष की उम्र में वह अपने पति रामकृष्ण से मिलने दक्षिणेश्वर पहुंचीं। रामकृष्ण इस समय कठिन आध्यात्मिक साधना में बारह वर्ष से ज्यादा समय व्यतीत कर चुके थे और आत्मसाक्षात्कार के सर्वोच्च स्तर को प्राप्त कर लिया था। उन्होंने बड़े प्यार से शारदा देवी का स्वागत कर उन्हें सहज रूप से ग्रहण किया और गृहस्थी के साथ-साथ आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करने की शिक्षा भी दी। शारदा देवी पवित्र जीवन व्यतीत करते हुए एवं रामकृष्ण की शिष्या की तरह आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करते हुए अपने दैनिक दायित्व का निर्वाह करने लगीं। रामकृष्ण शारदा को जगन्माता के रूप में देखते थे। 1872 ई. के फलाहारिणी काली पूजा की रात को उन्होंने शारदा की जगन्माता के रूप में पूजा की। दक्षिणेश्वर में आने वाले शिष्य भक्तों को शारदा देवी अपने बच्चों के रूप में देखती थीं और उनकी बच्चों के समान देखभाल करती थीं। 


शारदा देवी का दिन प्रात: 3 बजे शुरू होता। गंगास्नान के बाद वह जप और ध्यान करती थीं। रामकृष्ण ने उन्हें दिव्य मंत्र सिखाए थे और लोगों को दीक्षा देने और उन्हें आध्यात्मिक जीवन में मार्गदर्शन देने के लिए जरूरी सूचना भी दी थी। शारदा देवी को श्री रामकृष्ण की प्रथम शिष्या के रूप में देखा जाता है। 1886 ई. में रामकृष्ण के देहांत के बाद शारदा देवी तीर्थ-दर्शन करने चली गईं। वहां से लौटने के बाद वे कामाररपुकुर में रहने आ गईं पर वहां पर उनकी उचित व्यवस्था न हो पाने के कारण भक्तों के आग्रह पर वह कामारपुकुर छोड़कर कलकत्ता आ गईं। कलकत्ता आने के बाद सभी भक्तों के बीच संघ माता के रूप में प्रतिष्ठित होकर उन्होंने सभी को मां रूप में संरक्षण एवं अभय प्रदान किया। अनेक भक्तों को दीक्षा देकर उन्हें आध्यात्मिक मार्ग में प्रशस्त किया। 21 जुलाई 1920 को श्रीमां शारदा देवी ने नश्वर शरीर का त्याग किया। बेलुर मठ में उनके समाधि स्थल पर एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है। 

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