Edited By ,Updated: 08 Feb, 2017 01:59 PM
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय छ: ध्यानयोग
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय छ: ध्यानयोग
मन चंचल तथा अस्थिर
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्जलत्वात्स्थिङ्क्षत स्थिराम्।।33।।
अर्जुन उवाच—अर्जुन ने कहा; य:अयम्—यह पद्धति; योग:—योग; त्वया—तुम्हारे द्वारा; प्रोक्त:—कही गई; साम्येन—समान्यतया; मधुसूदन—हे मधु असुर के संहर्ता; एतस्य—इसकी; अहम्—मैं; न—नहीं; पश्यामि—देखता हूं; चञ्जलत्वात्—चंचल होने के कारण; स्थितिम्—स्थिति को; स्थिराम—स्थायी।
अनुवाद : अर्जुन ने कहा : हे मधुसूदन! आपने जिस योगपद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है, वह मेरे लिए अव्यावहारिक तथा असहनीय है, क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है।
तात्पर्य : भगवान कृष्ण ने अर्जुन के लिए शुचौ देशे से लेकर योगी परमो मत: तक जिस योगपद्धति का वर्णन किया है उसे अर्जुन अपनी असमर्थता के कारण अस्वीकार कर रहा है। इस कलियुग में सामान्य व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह अपना घर छोड़कर किसी पर्वत या जंगल के एकांत स्थान में जाकर योगाभ्यास करे।
व्यावहारिक व्यक्ति के रूप में अर्जुन ने सोचा कि इस योगपद्धति का पालन असंभव है, भले ही वह कई बातों से इस पद्धति पर पूरा उतरता था। वह राजवंशी था और उसमें अनेक सद्गुण थे, वह महान योद्धा था, वह दीर्घायु था और सबसे बड़ी बात तो यह कि वह भगवान श्री कृष्ण का घनिष्ठ मित्र था। पांच हजार वर्ष पूर्व अर्जुन को हमसे अधिक सुविधाएं प्राप्त थीं तो भी उसने इस योग पद्धति को स्वीकार करने से मना कर दिया। वास्तव में इतिहास में कोई ऐसा प्रलेख प्राप्त नहीं है जिससे यह ज्ञात हो सके कि उसने कभी योगाभ्यास किया हो। अत: इस पद्धति को इस कलियुग के लिए सर्वथा दुष्कर समझना चाहिए।
(क्रमश:)