घर में रहकर व्यापार करते हुए पाएं ईश्वर, जीवन के क्लेश एवं तनाव सब दूर हो जाएंगे

Edited By ,Updated: 24 Dec, 2016 03:24 PM

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‘यह घर ठाकुर जी का है’ शान्ति किसे नहीं चाहिए? सभी तो अशान्त हैं, बेचैन हैं, व्याकुल है, दुखियारे हैं। किसी को इस बात का दुख है तो

‘यह घर ठाकुर जी का है’


शान्ति किसे नहीं चाहिए? सभी तो अशान्त हैं, बेचैन हैं, व्याकुल है, दुखियारे हैं। किसी को इस बात का दुख है तो किसी को उस बात का दुख। आज एक बात का दुख है तो कल दूसरी बात का। संसार के सारे लोग दुख-संतप्त हैं। इन दुखों से बाहर कैसे आएं? इन दुखों से छुटकारा कैसे पाएं? सही अर्थ में सुख-शान्ति का जीवन कैसे जी सकें? 
हमारे देश के ऋषियों ने, मुनियों ने इसी बात की खोज की कि दुखों से छुटकारा कैसे मिले? सही अर्थ में सुख-शान्ति कैसे प्राप्त हो? सब एक ही परिणाम पर पहुंचे कि बिना हरिभजन के सुख-शान्ति नहीं मिल सकती। सबने अपने-अपने अनुभव के आधार पर मानव के क्लेश एवं तनावों को मिटाने के उपाय बताए। भगवान शिव जी ने उमा (पार्वती) से कहा-

 

उमा कहऊं मैं अनुभव अपना।
सत हरि भजनु जगत सब सपना।।

 

उत्तरकांड में काकभुशुण्डिजी भी अपना अनुभव बता रहे हैं-
निज अनुभव अब कहउं खगेसा।
बिनु हरि भजन न जाहिं कलेसा।। 

 

अत: क्लेशों से मुक्ति एवं सच्ची सुख-शांति हरिभजन के अतिरिक्त किसी प्रकार नहीं मिल सकती लेकिन हरिभजन अर्थात हरिभक्ति तभी सुख-शान्ति देती है, यदि उसे धारण किया जाए। भक्ति तो करें नहीं और उसकी चर्चा करें तो सुख-शांति नहीं मिलती। भगवान को चंदन-पुष्प अर्पण करना, मात्र इतने में कोई भक्ति पूर्ण नहीं होती, यह तो भक्ति की एक प्रक्रियामात्र है। भक्ति तो तब होती है जब सब में भक्तिभाव जागता है। ईश्वर सब में है। मैं जो कुछ भी करता हूं, ‘‘उस सबको ईश्वर देखते हैं’’ 

 

जो ऐसा अनुभव करता है, उसको कभी पाप नहीं लगता। उसका प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय बनता है। वह अतिशुद्ध व्यवहार है और यही तो भक्ति है। जिसके व्यवहार में अभिमान और कपट है, उसका व्यवहार शुद्ध नहीं और जिसका व्यवहार शुद्ध नहीं, उसे भक्ति में आनंद आता नहीं।

 

मानव भक्ति करता है परंतु व्यवहार शद्ध नहीं रखता। जिसका व्यवहार शुद्ध नहीं, वह मंदिर में भी भक्ति नहीं कर सकता। जिसका व्यवहार शुद्ध है, वह जहां बैठा है, वहीं भक्ति करता है और वहीं उसका मंदिर है।

 

व्यवहार और भक्ति में बहुत अंतर नहीं है। अमुक समय व्यवहार का, अमुक समय भक्ति का-ऐसा विभाजन नहीं है। रास्ता चलते, गाड़ी में यात्रा करते अथवा दुकान में बैठकर धंधा करते, सर्वकाल में और सर्वस्थल में सतत् भक्ति करनी है। भक्त बाजार में शाक-भाजी लेने जाए, यह भी भक्ति है। उसका ऐसा भाव है कि, ‘‘मैं अपने ठाकुर जी के लिए शाक-भाजी लेने जाता हूं।’’ 

 

प्रत्येक कार्य में ईश्वर का अनुसंधान, इसे कहते हैं पुष्टिभक्ति। प्रभु का स्मरण करते-करते घर का काम करो तो वह भी भक्ति है। ‘‘यह घर ठाकुरजी का है। घर में कचरा रहेगा तो ठाकुर जी नाराज होंगे।’’ 

 

ऐसा मानकर झाड़ू देना भी भक्ति है। ‘‘मेरे प्रभु मेरे हृदय में विराजमान हैं, उन्हें भूख लगी है। ऐसी भावना से किया हुआ भोजन भी भक्ति है।’’ 


बहुत-सी माताओं को ऐसा लगता है कि कुटुम्ब बहुत बड़ा है जिससे सारा दिन रसोईघर में ही चला जाता है। सेवा-पूजा कुछ हो नहीं पाती, परंतु घर में सबको भगवदरूप मानकर की हुई सेवा भी भक्ति है।


भक्ति करने के लिए घर छोडऩे या व्यापार छोडऩे की आवश्यकता नहीं। केवल अपने लिए ही कार्य करो, यह पाप है। घर के मनुष्यों के लिए काम करो, वह व्यवहार है और परमात्मा के लिए काम करो, यह भक्ति है।


कार्य तो एक ही है परंतु इसके पीछे भावना में बहुत फर्क है। महत्व क्रिया का नहीं, क्रिया के पीछे हेतु और भावना क्या है- यह महत्वपूर्ण है। मंदिर में एक मनुष्य बैठा-बैठा माला फेरे परंतु विचार संसार का करे, दूसरा मनुष्य प्रभु का स्मरण करते-करते बुहारी करे तो उस माला जपने वाले से यह बुहारी करने वाला श्रेष्ठ है।


अपनी दिनचर्या की सब क्रियाओं को भगवान से जोड़ दें। हम स्नान कर रहे हैं। क्यों स्नान कर रहे हैं? शरीर को स्वच्छ करने के लिए क्योंकि हमें भजन करने के लिए भगवान के पास बैठना है। हमारे पसीने की दुर्गंध भगवान को न जाए। इस भावना से स्नान करना भी भक्ति हो गया।


हमें कोई रोग लग गया, उसका उपचार करा लें क्यों? क्योंकि हम निरोग हो जाएंगे तो भगवान का भजन अच्छे से कर पाएंगे। इस भावना से रोग का उपचार करना भी भक्ति बन गया। अत: अपने शरीर की, मन की सब क्रियाओं को भगवान से जोड़ दें।  इस प्रकार हमारी दिनचर्या की सब क्रियाएं भक्तिमय हो जाएंगी।


व्यवहार करो। व्यवहार करना खोटा नहीं, परंतु जो व्यवहार प्राप्त हुआ है, उसमें विवेक की आवश्यकता है। मनुष्य को सतत् भक्ति में आनंद नहीं आता। अपने-जैसे साधारण मनुष्य का मन पांच-छ: घंटे परमात्मा का ध्यान, सेवा-स्मरण करने के उपरांत कुछ और-और मांगने लगता है।


निरंतर मिठाई मिले तो मन में अभाव होने लगता है, वैसे ही मनुष्य को सतत् भक्ति करने का अवसर मिलने पर वह भक्ति नहीं कर सकता। भगवान में से उसका मन हट जाता है। जैसे शरीर की थकान होती है, वैसे ही मन की थकान होती है। पांच-छ: घंटे सेवा करने के बाद मन थक जाता है। इसलिए दोनों प्रवृत्तियों को ढूंढता है। भक्ति के लिए प्रवृत्तियों का निरंतर त्याग करने की आवश्यकता नहीं है। प्रवृत्तियों को सतत् भक्ति बनाओ। भक्ति दो-तीन घंटे की नहीं, चौबीसों घंटों की करो। अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति को भक्तिमय बनाओ, भक्ति बनाओ।


बड़े-बड़े संत भी प्रारंभ में धंधा करते थे। संत यह धंधा करते-करते ही भक्ति करते थे और प्रभु को प्राप्त करते थे। नामदेव दर्जी थे, गोरा कुम्हार घड़ा बनाते थे, कबीरजी बुनकर थे, सैन भगत हजामत का काम करते थे। ये सभी संत धंधा करते थे, परंतु सब में प्रभु को देखते। ग्राहक में भी परमात्मा का अनुभव करते। प्रत्येक महापुरुषों को अपने धंधे से ज्ञान मिला। प्राचीनकाल में महान ज्ञानी ब्राहमण भी वैश्य के घर सत्संग के लिए जाते। 


जाजलि ऋषि की कथा है। एक दिन उनको आकाशवाणी से आज्ञा हुई कि सत्संग करना हो तो जनकपुर में तुलाधार वैश्य के यहां जाओ। जाजलि ऋषि तुलाधार के यहां गए। तुलाधार उस समय दुकान में काम कर रहे थे। जाजलि को देखकर उन्होंने पूछा-क्या आकाशवाणी सुनकर आए हो?  जाजलि को महान आश्चर्य हुआ कि इतना महान! तुलाधर से पूछा कि तुम्हारा गुरु कौन है? तुलाधार ने कहा,  ‘‘मेरा धंधा ही मेरा गुरु है। मैं अपने तराजू की डंडी ठीक रखता हूं। किसी को कम नहीं तौलता, बहुत नफा नहीं लेता। मेरी दुकान पर आने वाला ग्राहक प्रभु का अंश है, ऐसा मानकर व्यवहार करता हूं। तराजू की डंडी की तरह अपनी बुद्धि को ठीक रखता हूं, टेढ़ी होने नहीं देता। अपने माता-पिता को परमात्मा का स्वरूप मानकर उनकी सेवा करता हूं तथा धंधा करता-करता मन में मालिक का सतत् स्मरण रखता हूं।’’


धंधा करने में ईश्वर को भूलो नहीं तो तुम्हारा धंधा ही भक्ति बन जाएगा। ठाकुर जी का दर्शन करने में यदि दुकान दिखे तो दुकान का काम-काज करने में भगवान क्यों न दिखें? जब तक देह का भान है, तब तक व्यवहार तो करना ही पड़ेगा। व्यवहार करो परंतु व्यवहार करते-करते परमात्मा सबमें विराजते हैं, यह भूलो मत। व्यवहार में अपने धर्म को मत छोड़ो। यदि हमारी दिनचर्या के व्यवहार में भगवान की भक्ति का रंग एक बार भी चढ़ गया तो हमारे जीवन के क्लेश एवं तनाव सब दूर हो जाएंगे। 

 

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