Edited By ,Updated: 10 Apr, 2017 01:37 PM
ईश्वर चंद्र विद्यासागर कलकत्ता में अध्यापन कार्य करते थे। वह अपने वेतन का उतना ही अंश घर-परिवार के लिए खर्च करते जितने में औसत नागरिक स्तर का गुजारा चल जाता।
ईश्वर चंद्र विद्यासागर कलकत्ता में अध्यापन कार्य करते थे। वह अपने वेतन का उतना ही अंश घर-परिवार के लिए खर्च करते जितने में औसत नागरिक स्तर का गुजारा चल जाता। शेष भाग वह जरूरतमंदों की विशेषकर छात्रों की सहायता में खर्च कर देते थे। आजीवन उनका यही व्रत रहा। वह गरीबी में पढ़े थे इसलिए निर्धनों की जरूरतें पूरी करने में अपना धन लगा देते। एक दिन वह बाजार में चले आ रहे थे कि एक हताश युवक ने भिखारी की तरह उनसे एक पैसा मांगा। विद्यासागर दानी तो थे पर सत्पात्र की परीक्षा किए बिना किसी की ठगी में न आते। उन्होंने युवक से जवानी में हट्टे-कट्टे होते हुए भी भीख मांगने का कारण पूछा। सारी स्थिति जानने पर भीख मांगने का औचित्य लगा। सो एक पैसा तो दे दिया पर उसे रोक कर पूछा कि यदि इससे अधिक मिल जाए तो क्या करोगे? युवक ने कहा कि यदि एक रुपया मिला तो उसका सौदा लेकर गलियों में फेरी लगाने लगूंगा और अपने परिवार का पोषण करने में स्वावलंबी हो जाऊंगा। विद्यासागर ने एक रुपया उसे और दे दिया। उसे लेकर उसने छोटा व्यापार आरंभ कर दिया। काम दिनों-दिन बढऩे लगा। कुछ दिन में वह बड़ा व्यापारी बन गया। एक दिन विद्यासागर उस रास्ते से निकल रहे थे कि व्यापारी दुकान से उतरा, उनके चरणों में पड़ा और दुकान दिखाने ले गया और कहा, ‘‘यह आपका दिया एक रुपए की पूंजी का ही चमत्कार है।’’
विद्यासागर प्रसन्न हुए और कहा जिस प्रकार तुमने किसी से सहायता प्राप्त करके उन्नति की उसी प्रकार का लाभ जरूरतमंदों को भी देते रहना। जीवन में मात्र उपकार लेकर ही निश्चिंत नहीं हो जाना चाहिए वरन् वैसा ही लाभ अनेकों को पहुंचाने के लिए समर्थता की स्थिति में स्वयं भी कभी उदारता बरतनी चाहिए। व्यापारी ने वैसा ही करते रहने का वचन दिया।