मुगल बादशाह भी होली के बहुत दीवाने थे, जानिए होली का वैदिक-कालीन स्वरूप

Edited By ,Updated: 13 Mar, 2017 01:54 PM

the mughal emperor too was very crazy about holi

प्राचीनकाल से ही हमारी संस्कृति की यह परंपरा रही है कि रंगों का त्यौहार होली हर वर्ग के लोग बिना किसी भेदभाव के मिलकर मनाते आ रहे हैं

प्राचीनकाल से ही हमारी संस्कृति की यह परंपरा रही है कि रंगों का त्यौहार होली हर वर्ग के लोग बिना किसी भेदभाव के मिलकर मनाते आ रहे हैं जिसका मूल स्वरूप आपसी प्रेम, मस्ती और हास-विलास का है। कहीं रंग-गुलाल से होली खेली जाती है तो कहीं फूलों से। कहीं लट्ठमार होली तो कहीं हास-परिहास के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। प्राचीन युग में होली के दिन यज्ञ संपन्न करके वेदज्ञ ब्राह्मण, नट व नर्तकियों के आपसी हंसी-मजाक का आनंद लेते थे। अकबर के समय में होली ने मुगल राजमहल में प्रवेश किया। इस दिन जमकर रंगभरी पिचकारियां छलकतीं, इत्र-सुगंध बिखेरता गुलाल संपूर्ण वातावरण को रंगीन बना देता था।


होली का वैदिक-कालीन स्वरूप : होली फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाई जाती है। हमारी पुरानी मान्यता है कि प्रकृति से प्राप्त किसी भी वस्तु को पहली बार देवताओं को अर्पित किया जाता है। फाल्गुन की पूर्णिमा को खेतों में फसलें पकने लगती हैं तो इस उद्देश्य से ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ की शुरूआत हुई। फसलों की कटाई का पहला भाग देवताओं को अर्पित करते हुए यज्ञ में अनाज के अतिरिक्त धृत एवं अनेकों जड़ी-बूटियां भी डाली जाती थीं। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी था कि इन सबकी सुगंध वातावरण को शुद्ध करके वायु को दूषित होने से बचाती थी। इन्हीं के छोटे-छोटे कण ऊपर जाकर बादलों में मिलते और वर्षा के रूप में धरती पर गिरने वाला जल उपयोगी व शक्तिशाली तत्वों से युक्त होता था जिससे खेतों की फसलें पौष्टिक बनती थीं।

 
देवताओं को भेंट करने के बाद उसका कुछ भाग आधा भूनकर (अधपका) लोग स्वयं प्रसाद के रूप में ग्रहण करते थे। आधे भूने इस अन्न को संस्कृत में ‘होलक’ कहते हैं। इस कारण यह पर्व ‘होलिकोत्सव’ कहलाने लगा। इस यज्ञ के अगले दिन अमोद-प्रमोद के लिए जल-क्रीड़ा की जाती तथा अन्य मनोरंजक कार्यक्रम आयोजित होते। औरंगजेब को छोड़कर सभी मुगल शासकों ने भी यह पर्व संपूर्ण उल्लास और आत्मीयता से मनाया। उनके यहां फूलों से रंग तैयार किए जाते व गुलाबजल, केवड़ा जैसे इत्रों की सुगंध वाले फव्वारे निरंतर चलते रहते थे जिससे सारा वातावरण महकता रहता था।


अंतिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर एक शायर होने के साथ-साथ होली के बहुत दीवाने थे। अंग्रेजों द्वारा पैदा की जाने वाली अनेक बाधाओं के बावजूद बिना किसी सांप्रदायिक भेदभाव के वह सबके साथ होली मनाते। उन्होंने ब्रज भाषा में होली पर अनेक गीत लिखे। जैसे-
क्यों मो पै रंग की मारी पिचकारी
देखो कुंवर जी दूंगी में गारी।
बहुत दिनन पे हाथ लगे हो, कैसे जाने दूं
मैं पगवा तो सौं हाथ पकड़ कर लूं।


इनके अतिरिक्त तानसेन, मुस्लिम कवयित्री बेगम ताज, रसखान जैसे अनेकों मुस्लिम कवियों ने होली के गीतों को लिखते हुए इस पर्व का ऐसा सजीव चित्रण किया है जिससे इसका राष्ट्रीय व धार्मिक सद्भाव वाला रूप उभर कर सामने आता है। 

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