जानिए, महावीर स्वामी के अनुसार कर्मों की संख्या व उनका फल

Edited By Punjab Kesari,Updated: 27 Mar, 2018 04:47 PM

the number of karma and their fruits according to mahavir swami

जैन धर्म के वर्तमान अवसर्पिणी काल के 24 तीर्थंकर भगवान महावीर है। इनका जन्म लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था। महावीर को ''वर्धमान'', वीर'', ''अतिवीर'' और ''सन्मति'' भी कहा जाता है। तीस वर्ष की आयु में...

जैन धर्म के वर्तमान अवसर्पिणी काल के 24 तीर्थंकर भगवान महावीर है। इनका जन्म लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था। महावीर को 'वर्धमान', वीर', 'अतिवीर' और 'सन्मति' भी कहा जाता है। तीस वर्ष की आयु में गृह त्याग कर, दीक्षा लेकर महावीर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गए। जैन ग्रंथों के अनुसार केवल ज्ञान प्राप्ति के बाद, भगवान महावीर ने उपदेश दिया। 

जैन दर्शन के अनुसार केवल विशुद्धतम ज्ञान को कहते हैं। इस ज्ञान के चार प्रतिबंधक कर्म होते हैं- मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनवरण तथा अंतराय।  इन चारों कर्मों का क्षय होने से केवलज्ञान का उदय होता हैं। इन कर्मों में सर्वप्रथम मोहकर का, तदनन्तर इतर तीनों कर्मों का एक साथ ही क्षय होता है। लेकिन महावीर स्वामी ने कर्मों की संख्या 8 बताई है-


नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणं तहा।
वेयणिज्जं तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य।।
नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य।
एवमेयाइं, कम्माइं, अट्ठेव उ समासओ।।

 
ये है वो 8 कर्म-
 
ज्ञानावरणीय कर्म- इस कर्म के बार में महावीर स्वामी ने कहा है कि यह वह कर्म जिससे आत्मा के ज्ञान-गुण पर पर्दा पड़ जाए। जैसे सूर्य का बादल में ढंक जाना। 


दर्शनावरणीय कर्म- वो कर्म जिससे आत्मा की दर्शन-शक्ति पर पर्दा पड़ जाए, जैसे चपड़ासी बड़े साहब से मिलने पर रोक लगा दे।

 
वेदनीय कर्म- वह कर्म जिससे आत्मा को साताका-सुख और असाताका-दु:ख का अनुभव हो, जैसे गुड़भरा हंसिया मीठा भी और काटने वाला भी।


मोहनीय कर्म- वह कर्म जिससे आत्मा के श्रद्धा और चारित्र गुणों पर पर्दा पड़ जाता है, जैसे शराब पीकर मनुष्य नहीं समझ पाता कि वह क्या कर रहा है।


आयु कर्म- वह कर्म जिससे आत्मा को एक शरीर में नियत समय तक रहना पड़े, जैसे कैदी को जेल में।


नाम कर्म- वह कर्म जिससे आत्मा मूर्त होकर शुभ और अशुभ शरीर धारण करे, जैसे चित्रकार की रंग-बिरंगी तस्वीरें।


गोत्र कर्म- वह कर्म जिससे आत्मा को ऊंची-नीची अवस्था मिले, जैसे कुम्हार के छोटे-बड़े बर्तन।


अंतराय कर्म- वह कर्म जिससे आत्मा की लब्धि में विघ्न पड़े, जैसे राजा का भंडारी। बिना उसकी मर्जी के, राजा की आज्ञा से भी काम नहीं बनता।


कर्मों का फल
जमियं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो।
सममेव कडेहिं गाहई, णो तस्सा मुच्चेज्जऽपुट्ठय।।

 
महावीर स्वामी कहते हैं कि इस धरती पर जितने भी प्राणी हैं, वे सब अपने-अपने संचित कर्मों के कारण ही संसार में चक्कर लगाया करते हैं। अपने किए कर्मों के अनुसार वे भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना प्राणी का छुटकारा नहीं होता।

 
जह मिडलेवालित्तं गरुयं तुबं अहो वयइ एवं।
आसव-कय-कम्म-गुरु, जीवा वच्चंति अहरगइं।।

 
जिस तरह तुम्बी पर मिट्टी की तहें जमाने से वह भारी हो जाती है और डूबने लगती है, उसी तरह हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार तथा मूर्च्छा, मोह आदि आस्रवरूप कर्म करने से आत्मा पर कर्मरूप मिट्टी की तहें जम जाती हैं और वह भारी बनकर अधोगति को प्राप्त हो जाती है।

 
तं चेव तव्विमुक्कं जलोवरि ठाइ जायलहुभावं।
जह तह कम्मविमुक्का लोयग्गपइट्ठिया होंति।।
 

यदि तुम्बी के ऊपर की मिट्टी की तहें हटा दी जाएं तो वह हल्की होने के कारण पानी पर आ जाती है और तैरने लगती है। वैसे ही यह आत्मा भी जब कर्म बंधनों से सर्वथा मुक्त हो जाती है, तब ऊपर की गति प्राप्त करके लोकाग्र भाग पर पहुंच जाती है और वहां स्थिर हो जाती है।

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