ईर्ष्या से ग्रस्त इंसान खुद को ही पहुचंता है पीड़ा

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Nov, 2017 05:00 PM

the person suffering from jealousy suffers from pain itself

इंसान विपरीत भावों के जाल में उलझता हुआ जीता है। उसके कुछ भाव सकारात्मक होते हैं और कुछ नकारात्मक।

इंसान विपरीत भावों के जाल में उलझता हुआ जीता है। उसके कुछ भाव सकारात्मक होते हैं और कुछ नकारात्मक। प्रेम, सद्भाव, सेवा और त्याग की प्रवृत्ति जहां जीवन के उत्थान का कारण बनती है, वहीं दूसरी ओर क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष जैसे भाव मानव को कितना नुक्सान पहुंचाते हैं, इसकी अनुभूति उसे खुद भी नहीं हो पाती। 


इनमें ईर्ष्या एक नकारात्मक भाव है, जिसकी तीव्रता कभी मंद तो कभी तेज प्रतीत होती है। कहीं-कहीं तो अत्यधिक ईर्ष्या से ग्रस्त प्राणी दूसरों को हानि पहुंचाने के साथ स्वयं अपने विनाश की ओर अग्रसर होता जाता है। यदि यह मानें कि चिंता चिता के समान है तो ईर्ष्या उसकी अग्नि है। तभी तो इसे जलन की संज्ञा दी जाती है। स्वभाव में ईर्ष्या का पुट कहीं न कहीं अपने आप में छोटेपन का परिचायक है। 


मनुष्य प्रत्येक क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता, परंतु अविवेकी लोग यह मानने लगते हैं कि मैं सबसे अग्रणी हूं, मुझसे अच्छा या योग्य और कोई नहीं। ऐसी परिस्थिति में जब वे वह नहीं प्राप्त कर पाते जो दूसरे आसानी से भोग रहे होते हैं तो वे ईर्ष्या के भाव से ग्रस्त होने लगते हैं। यह भाव उनकी प्रकृति व संस्कार का हिस्सा बन जाता है। फिर ईर्ष्या जन्म देती है क्रोध और घृणा को, जो और भी भयंकर परिणाम का कारण बनते हैं।


मनोविज्ञानी भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि एक सीमा से आगे पहुंचकर ईर्ष्या मनुष्य को एक प्रकार की रुग्णावस्था में पहुंचा देती है। दुर्भाग्य तो यह है कि उसे इस विषम परिस्थिति का ज्ञान ही नहीं हो पाता कि कब ईर्ष्या की मनोदशा उसे किस दलदल में धंसाने लगती है। ईष्र्या एक ऐसा छिपा हुआ भाव है जिसे मनुष्य जानते-समझते हुए भी अस्वीकार करता रहता है। 


वैज्ञानिक विश्लेषण यहां तक सिद्ध करने का दावा करते हैं कि क्रोध और ईर्ष्या की स्थिति में शरीर में नुक्सानदेह हार्मोन का स्राव ज्यादा होता है। ईर्ष्या से ग्रस्त प्राणी स्वयं अपने को ही पीड़ा देता है। यदि दूसरों से व्यर्थ की होड़ न करके संयम रखते हुए मनुष्य खुद को ऊपर उठाने में प्रयासरत रहे तो कोई कारण नहीं कि ईर्ष्या जैसी अग्नि से बचा न जा सके।

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