श्रीकृष्ण कहते हैं, जो व्यक्ति ये उपाय अपनाता है उसकी सफलता को कोई नहीं रोक सकता

Edited By ,Updated: 03 Mar, 2017 01:42 PM

the person who adopts these measures can stop her success

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद  अध्याय छ: ध्यानयोग योगाभ्यास कैसे हो  असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद 

 

अध्याय छ: ध्यानयोग

 

योगाभ्यास कैसे हो 

 

असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मति:।

वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायत:।। 36।।

 

असंयत—उच्छृंखल; आत्मना— मन के द्वारा; योग: —आत्म-साक्षात्कार; दुष्प्राप:—प्राप्त करना कठिन; इति—इस प्रकार; मे—मेरा; मति:—मत; वश्य—वशीभूत; आत्मना—मन से; तु—लेकिन; यतता—प्रयत्न करते हुए; शक्य:—व्यावहारिक; अवाप्तुत—प्राप्त करना; उपायत:—उपयुक्त साधनों द्वारा।

 

अनुवाद : जिसका मन उच्छृंखल है, उसके लिए आत्म-साक्षात्कार कठिन कार्य होता है, किन्तु जिसका मन संयमित है और जो समुचित उपाय करता है उसकी सफलता धु्रव है। ऐसा मेरा मत है।

 

तात्पर्य : भगवान घोषणा करते हैं कि जो व्यक्ति अपने मन को भौतिक व्यापारों से विलग करने का समुचित उपचार नहीं करता उसे आत्म-साक्षात्कार में शायद ही सफलता प्राप्त हो सके। भौतिक भोग में मन लगाकर योग का अभ्यास करना मानो अग्नि में जल डाल कर उसे प्रज्वलित करने का प्रयास करना हो।

 

मन का निग्रह किए बिना योगाभ्यास समय का अपव्यय है। योग का ऐसा प्रदर्शन भले ही भौतिक दृष्टि से लाभप्रद हो किन्तु जहां तक आत्म साक्षात्कार का प्रश्र है यह सब व्यर्थ है। अत: मनुष्य हो चाहिए कि भगवान की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरंतर मन को लगाकर उसे वश में करे। कृष्णभावनामृत में प्रवृत्त हुए बिना मन को स्थिर कर पाना असंभव है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ही योगाभ्यास का फल सरलता से प्राप्त कर लेता है किन्तु योगाभ्यास करने वाले को कृष्णभावनाभावित हुए बिना सफलता नहीं मिल पाती।  

  (क्रमश:)

 

 

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