24 जून, स्मृति-दिवस: सत्य और स्नेह की प्रतीक जगदम्बा सरस्वती (मम्मा)

Edited By Punjab Kesari,Updated: 22 Jun, 2017 07:15 AM

the symbol of truth and affection jagadamba saraswati mama

जब-जब संसार में दिव्यता की कमी, धर्म की ग्लानि, समाज में अन्याय, अत्याचार, चरित्र में गिरावट व विश्व में अशांति के बीज पनपने लगते हैं, तब-तब

जब-जब संसार में दिव्यता की कमी, धर्म की ग्लानि, समाज में अन्याय, अत्याचार, चरित्र में गिरावट व विश्व में अशांति के बीज पनपने लगते हैं, तब-तब इन समस्त बुराइयों को समाप्त करने के लिए किसी महान विभूति का जन्म होता है। इन्हीं में से एक महान विभूति थीं-जगदम्बा सरस्वती (मम्मा): इसका बचपन का नाम राधे था। इनका जन्म 1919 में अमृतसर में हुआ। पिता का नाम पीकरदास और माता का नाम रोचा था। अचानक राधे के पिता जी का देहांत हो गया और राधे अपनी मां व छोटी बहन के साथ सिंध हैदराबाद में अपनी नानी व मामा के घर आ गई। राधे की पढ़ाई प्राय: हैदराबाद में ही हुई। राधे ने स्कूल की पढ़ाई मैट्रिक स्तर तक ही की।


उन्हीं दिनों ओम मंडली का सत्संग दादा लेखराज के घर पर होता था। एक दिन राधे भी अपनी मां के साथ सत्संग में गई। उन्हें देखते ही दादा को लगा कि यह तो मेरी वारिस बेटी है और राधे को भी लगा यह तो मेरा बहुत काल में बिछुड़ा हुआ वही पिता है। दादा लेखराज जी राधे को आलौकिक परमात्म ज्ञान की शिक्षा-दीक्षा देने लगे। कुछ समय में ही राधे को सत्संग की संचालिका बना दिया और कुछ अन्य माताओं व कन्याओं को मिलाकर एक कार्यकारिणी समिति बना दी और दादा ने अपना धन, चल-अचल सम्पत्ति इस समिति के नाम कर दी। आगे चलकर इस समिति का नाम प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय पड़ा।


मम्मा सर्व गुणों की खान और मानवीय मूल्यों की विशेषताओं से सम्पन्न थीं। मम्मा ने कभी किसी को मौखिक शिक्षा नहीं दी बल्कि अपने प्रैक्टीकल जीवन से प्रेरणा दी। इसी से दूसरे के जीवन में परिवर्तन आ जाता था। मम्मा के सामने चाहे कितना भी विरोधी, क्रोधी, विकारी, नशेड़ी आ जाता परन्तु मम्मा की पवित्रता, सौम्यता व ममतामयी दृष्टि पाते ही वह शांत हो जाता और मम्मा के कदमों में गिर जाता।
मम्मा की सत्यता, दिव्यता व पवित्रता की शक्ति ने लाखों कन्याओं के लौकिक जीवन को अलौकिकता में परिवर्तित कर दिया और उन कन्याओं ने अपना सीमित परिवार त्याग कर विश्व को अपना परिवार स्वीकार करके विश्व की सेवा में त्याग व तपस्या द्वारा जुट गईं।


मानव समाज को मम्मा ने अपने जीवन के अनुभव से एक बहुत बड़ी देन दी है कि अपने जीवन को सफल बनाने के लिए व विश्व सेवा के लिए बीस नाखूनों की शक्ति लगा दो तो सफलता अवश्य आपके हाथ लगेगी। मम्मा बहुत कम बोलती थीं और दूसरों को भी कम बोलने का इशारा करती थीं। अधिक बोलने से हमारी शक्ति नष्ट हो जाती है, ऐसा मम्मा का कहना था।


इस प्रकार अपने ज्ञान, योग, पवित्रता के बल से विश्व की सेवा करते हुए मम्मा-सरस्वती ने 24 जून 1965 को अंतिम सांस ली।

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