गीता की ये 12 विद्याएं संवार देती हैं लोक-परलोक

Edited By Punjab Kesari,Updated: 07 Nov, 2017 12:43 PM

these 12 teachings of the gita fill the folklore

गीता का ज्ञान मनुष्य मात्र का मंगल करने की सत्य प्रेरणा देता है, सद्ज्ञान देता है। गीता की 12 विद्याएं हैं। गीता सिखाती है कि भोजन कैसा करना चाहिए जिससे आपका तन तंदरुस्त रहे, व्यवहार कैसा करना चाहिए जिससे आपका मन तंदरुस्त रहे और ज्ञान कैसा...

गीता का ज्ञान मनुष्य मात्र का मंगल करने की सत्य प्रेरणा देता है, सद्ज्ञान देता है। गीता की 12 विद्याएं हैं। गीता सिखाती है कि भोजन कैसा करना चाहिए जिससे आपका तन तंदरुस्त रहे, व्यवहार कैसा करना चाहिए जिससे आपका मन तंदरुस्त रहे और ज्ञान कैसा सुनना-समझना चाहिए जिससे आपकी बुद्धि में ज्ञान-ध्यान का प्रकाश हो जाए। जीवन कैसे जीना चाहिए कि मरने से पहले मौत के सिर पर पैर रख कर आप अमर परमात्मा की यात्रा करने में सफल हो जाएं। ऐसा गीता का दिव्य ज्ञान है। इसकी 12 विद्याएं समझ लें :


शोक-निवृत्ति की विद्या : गीता आशा का ग्रंथ है, उत्साह का ग्रंथ है। मरा कौन है? जिसकी आशा, उत्साह मर गए वह जीते-जी मरा हुआ है। सफल कौन होता है? जिसके पास बहुत लोग हैं, बहुत धन है, वह खुश और सफल होता है? नहीं-नहीं। जिसके जीवन में ठीक दृष्टिकोण, ठीक ज्ञान और ठीक उत्साह होता है, वही वास्तव में जिंदा है। गीता जिंदादिली देने वाला सद्ग्रंथ है। गीता का सत्संग सुनने वाला बीते हुए का शोक नहीं करता, भविष्य की कल्पनाओं से भयभीत नहीं होता, वर्तमान के व्यवहार को अपने सिर पर हावी नहीं होने देता और चिंता का शिकार नहीं बनता। गीता का सत्संग सुनने वाला कर्म-कौशल्य पा लेता है।


कर्तव्य-कर्म करने की विद्या : कर्तव्य-कर्म कुशलता से करें। लापरवाही, द्वेष, फल की लिप्सा से कर्मों को गंदा न होने दें। आप कर्तव्य-कर्म करें और फल ईश्वर के हवाले कर दें। फल की लोलुपता से कर्म करेंगे तो आपकी योग्यता नपी-तुली हो जाएगी। कर्म को ‘कर्मयोग’ बना दें।


त्याग की विद्या : चित्त से तृष्णाओं का, कर्तापन का, बेवकूफी का त्याग करना।  ...त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्। (गीता : 12.12) त्याग से आपके हृदय में निरंतर परमात्म-शांति रहेगी।


भोजन करने की विद्या: युद्ध के मैदान में भी भगवान स्वास्थ्य की बात नहीं भूलते हैं। भोजन ऐसा करें कि आपको बीमारी स्पर्श न करे और बीमारी आए तो भोजन ऐसे बदल जाए कि बीमारी टिके नहीं। युक्ताहारविहारस्य...(गीता : 6.17)


पाप न लगने की विद्या : युद्ध जैसा घोर कर्म करते हुए अर्जुन को पाप न लगे, ऐसी विद्या है गीता में। कर्तृत्वभाव से, फल की इच्छा से तुम कर्म करते हो तो पाप लगता है लेकिन कर्तव्य के अहंकार से नहीं, फल की इच्छा से नहीं, मंगल भावना से भर कर करते हो तो आपको पाप नहीं लगता। यस्य नाहंकृतो भावो...(गीता : 18.17)


यह सनातन धर्म की कैसी महान विद्या है। जरा-जरा बात से झूठ बोलने का लाइसैंस नहीं मिल रहा है लेकिन जिससे सामने वाले का हित होता हो और आपका स्वार्थ नहीं है तो आपको ऐसा कर्म बंधनकारी नहीं होता, पाप नहीं लगता।


विषय-सेवन की विद्या : आप ऐसे रहें, ऐसे खाएं-पिएं कि आप संसार का उपयोग करें, उपभोग करके संसार में डूब न मरें। जैसे मूर्ख मक्खी चाशनी में डूब मरती है, सयानी मक्खी किनारे से अपना काम निकाल कर चली जाती है, ऐसे आप संसार में पहले थे नहीं, बाद में रहेंगे नहीं तो संसार में अपनी जीविका भर की गाड़ी चला कर बाकी का समय बचाकर अपनी आत्मिक उन्नति करें। इस प्रकार संसार की वस्तु का उपयोग करने की, विषय-सेवन की विद्या भी गीता ने बताई।


भगवद्-अर्पण करने की विद्या : शरीर, वाणी तथा मन से आप जो कुछ करें, उसे भगवान को अर्पित कर दें। आपका हाथ उठने में स्वतंत्र नहीं है। आपका मन, जीभ और बुद्धि कुछ भी करने में स्वतंत्र नहीं है। आप डाक्टर या अधिकारी बन गए तो क्या आप अकेले अपने पुरुषार्थ से बने? नहीं, कई पुस्तकों के लेखकों की, शिक्षकों की, माता-पिता की और समाज के न जाने कितने सारे अंगों की सहायता से आप कुछ बन पाए और उसमें परम सहायता परमात्मा की चेतना की है तो इसमें आपके अहं का है क्या? 


दान देने की विद्या : नश्वर चीजें छोड़ कर ही मरना है तो इनका सदुपयोग, दान-पुण्य करते जाइए। दातव्यमिति यद्दानं...(गीता : 17-20) आपके पास विशेष बुद्धि या बल है तो दूसरों के हित में उसका दान करें। धनवान हैं तो आपके पास जो धन है उसका पांचवां अथवा दसवां हिस्सा सत्कर्म में लगाना ही चाहिए।


यज्ञ-विद्या : गीता (17.11) में आता है कि फलेच्छारहित होकर शास्त्र-विधि से नियत यज्ञ करना ही कर्तव्य है- ऐसा जान कर जो यज्ञ किया जाता है वह सात्त्विक होता है। यज्ञ-याग आदि करने से बुद्धि पवित्र होती है और पवित्र बुद्धि में शोक, दुख एवं व्यर्थ की चेष्टा नहीं होती। आहूति डालने से वातावरण शुद्ध होता है एवं संकल्प दूर तक फैलता है लेकिन केवल यही यज्ञ नहीं है। भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी देना, अनजान व्यक्ति को रास्ता बताना भी यज्ञ है।


पूजन-विद्या : देवता का पूजन, पितरों का पूजन, श्रेष्ठ जनों का पूजन करने की विद्या गीता में है। पूजन करने वाले को यश, बल, आयु और विद्या प्राप्त होती है।
लेकिन जर्रे-जर्रे में राम जी हैं, ठाकुर जी हैं, प्रभु जी हैं-वासुदेव : सर्वम्,...यह व्यापक पूजन-विद्या भी ‘गीता’ में है।


समता लाने की विद्या : अपने जीवन में समता का सद्गुण लाइए। दुख आए तो पक्का समझिए कि आया है तो जाएगा। इससे दबे नहीं। दुख आने का रस लीजिए। सुख आए तो सुख आने का रस लीजिए कि तू जाने वाला है। तेरे से चिपकेंगे नहीं और दुख से डर कर, दब कर अपना हौसला दबाएंगे नहीं। तो सुख-दुख विकास के साधन बन जाते हैं। जीवन रसमय है। आपकी उत्पत्ति रसस्वरूप ईश्वर से हुई है। आप जीते हैं तो रस के बिना नहीं जी सकते  लेकिन विकारी रस में आप जिएंगे तो जन्म-मरण के चक्कर में जा गिरेंगे और यदि आप निर्विकारी रस की तरफ आते हैं तो आप शाश्वत, रस स्वरूप ईश्वर को पाते हैं।


कर्मों को सत् बनाने की विद्या : आप कर्मों को सत् बना लीजिए। वे कर्म आपको सत्स्वरूप की तरफ ले जाएंगे। आप कभी यह न सोचिए कि मेरे 10 मकान हैं, मेरे पास इतने रुपए हैं...इनकी अहंता मत लाइए, आप अपना गला घोटने का पाप न करिए। मकान हमारे हैं, रुपए मेरे हैं तो आपने असत् को मूल्य दिया, आप तुच्छ हो गए। आपने कर्मों को इतना महत्व दिया कि आपको असत कर्म दबा रहे हैं।
आप कर्म करें, कर्म तो असत् हैं, नश्वर हैं लेकिन कर्म करने की कुशलता आ जाए तो आप सत् में पहुंच जाएंगे। आप परमात्मा के लिए कर्म करें तो कर्मों के द्वारा आप सत् का संग कर लेंगे।


कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते। ‘उस परमात्मा के लिए कियाहुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्-ऐसे कहा जाता है।’ (गीता : 17, 27)

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