ये है सज्जन लोगों का असली आभूषण, जानें इस मामले में आप कितने हैं धनवान

Edited By Punjab Kesari,Updated: 11 Feb, 2018 01:41 PM

this is the real ornament of gentlemen

मनुष्य में जब तक मानवीय गुणों का समावेश न हो, तब तक वह सच्चे अर्थों में मनुष्य नहीं कहला सकता। इसीलिए मनीषियों ने मनुष्य को ‘मनुर्भव-मनुष्य ’ बनने के लिए कहा है। जीवनचर्या में मानवीय गुणों का समावेश करके ही आदर्श मनुष्य बना जा सकता है। मानवता के कुछ...

मनुष्य में जब तक मानवीय गुणों का समावेश न हो, तब तक वह सच्चे अर्थों में मनुष्य नहीं कहला सकता। इसीलिए मनीषियों ने मनुष्य को ‘मनुर्भव-मनुष्य ’ बनने के लिए कहा है। जीवनचर्या में मानवीय गुणों का समावेश करके ही आदर्श मनुष्य बना जा सकता है। मानवता के कुछ महत्वपूर्ण गुण इस प्रकार हैं-


सत्य
सत्य मानवता का एक मौलिक सिद्धांत है। सत्य भीतर-बाहर हर जगह आवश्यक है। सत्य को मनसा-वाचा-कर्मणा अपनाना चाहिए। सत्य बात को छुपाना भी उतना ही असत्य है जितना असत्य बोलना। शाब्दिक सत्य का ही निर्वाह आवश्यक नहीं बल्कि उसकी आत्मा का भी निर्वाह आवश्यक है। सत्य के ऊपर ही निजी, सामाजिक एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंध स्थिर रह सकते हैं। कथनों की पुष्टि करनी से होनी चाहिए। सच्ची मानवता दिखावा नहीं स्वीकार करती। अपनी कमजोरी को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लेना सदाचारी बनने की विडम्बना से कहीं श्रेयस्कर है। जो मनुष्य अपनी कमजोरी को स्वीकार कर लेता है, वह दूसरों की कमजोरियों के प्रति सहानुभूति दिखा सकता है। मानवता के दृष्टिकोण से सभी पक्षों के सत्य को देखना चाहिए। हम यदि मालिक हैं तो नौकर के, यदि अध्यापक हैं तो विद्यार्थी के दृष्टिकोण के विपरीत पक्षों का अध्ययन करना आवश्यक है। सत्य के एक ही पक्ष पर बल देने से मनुष्य दूसरे के साथ न्याय नहीं कर सकता। न्याय भी सत्य का ही एक व्यावहारिक रूप है। न्याय अपने और दूसरों के कर्तव्यों और अधिकारों के सत्य की स्वीकृति है। न्याय का अर्थ अपने लिए ही न्याय नहीं बल्कि दूसरों के लिए भी उसी मानदंड से है जिसेे हम अपने लिए चाहते हैं। बेचने और खरीदने के बाट एक से होने चाहिएं। जिस मानदंड से हम विदेशियों से न्याय की अपेक्षा रखते थे, उसी मानदंड से आज हमको अन्य शोषित वर्गों के साथ न्याय करने को महत्व देना चाहिए। समस्या को दूसरों की आंखों से देखना भी आवश्यक है।


अहिंसा
अहिंसा भी सत्य का पूरक रूप है। अहिंसा व्यावहारिक सत्य है। अहिंसा से दूसरे के अधिकारों की स्वीकृति रहती है। अहिंसा भी मनसा-वाचा-कर्मणा-तीनों से ही होती है। 
अहिंसा के पीछे ‘जियो और जीने दो’ का सिद्धांत रहता है। जहां अहिंसा का मान नहीं वहां मानवता नहीं। अहिंसा मानवता का पर्याय है। मनुष्य को उसके प्राण लेने का कोई अधिकार नहीं, जिसको वह दे नहीं सकता। हिंसा केवल प्राण लेने में ही नहीं है बल्कि दूसरों के अधिकारों और स्वाभिमान को आघात पहुंचाने में भी होती है।


दूसरों के स्वाभिमान की रक्षा
दूसरों के स्वाभिमान की रक्षा अर्थात किसी में हीनता का भाव उत्पन्न न होने देना मानवता की प्रमुख मांग है। रंग, रोग, अकुलीनता और निर्धनता मनुष्य के हाथ की चीजें नहीं हैं। उनके कारण उसे नीचा समझना या उसे उसकी हीनता का अनुभव कराना जले पर नमक छिड़कना है। नैतिक पतन के कारण हम किसी का बहिष्कार कर सकते हैं लेकिन उसमें भी सहृदयता अपेक्षित रहती है। उसके पतन के कारणों को समझना और उनको दूर करना मानवता के अंतर्गत आता है।


शिष्टता
शिष्टता वचन और व्यवहार दोनों से संबंधित है। सत्य बोलना ही आवश्यक नहीं है, प्रिय बोलना भी अपेक्षित है। वचन की प्रियता ही दूसरों में हीन-भाव उत्पन्न होने से रोकती है। जो लोग सत्य को प्रिय रूप नहीं दे सकते उनका अहं प्रबल हो जाता है। यही भाव समाज में टकराहटें पैदा करता है तथा संघर्ष का जनक बन जाता है। विनय विद्या का ही भूषण नहीं बल्कि सत्य का भी भूषण है। शिष्टता विनय का ही दूसरा नाम है। हमारी शिष्टता सत्य से परिपूर्ण होनी चाहिए। शिष्टता दंभ या धोखेबाजी का रूप न धारण कर पाए, इसका सदा ध्यान रखना चाहिए।


सहिष्णुता
सहिष्णुता एक ऐसा गुण है जो प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है। मनुष्य में अपने सत्य के प्रतिपादन के लिए कष्ट सहन करने की ही क्षमता नहीं होनी चाहिए बल्कि धैर्यपूर्वक दूसरों की बात सुनने की और सोचने की भी क्षमता होनी चाहिए। जो इस प्रकार की सहिष्णुता नहीं रखते वे सत्य को एकांगी बना देते हैं। धर्म सहिष्णुता  और शांति का एक आवश्यक उपकरण है।


समदर्शिता
आत्मा के दृष्टांत से जो सब को एक-सी दृष्टि से देखता है और सोचता है कि जिस चीज से मुझे सुख होता है उससे दूसरे को सुख होगा और जिससे मुझे दुख होता है, उससे दूसरों को भी दुख होगा, वही परम योगी है इसीलिए कहा गया है कि जो सब मानवों को समान रूप से देखता है, वही सच्चा मानव है। मानवता का गुण मानवों के प्रति व्यवहार में ही सीमित नहीं है बल्कि मानवेत्तर सभी प्राणियों के संबंध में भी लागू होता है। सहानुभूति भी समदर्शिता का ही एक रूप है। सहानुभूति आत्मा के विस्तार का परिचायक है। जो मनुष्य सब में एक ही आत्मा का विस्तार जानते हैं वे अवश्य दूसरों के साथ सहानुभूति रखते हैं।


निर्बल पर बल प्रदर्शन न करना
नि:शस्त्र स्त्री और रोगी पर हथियार चलाना वीरता के विरुद्ध माना गया है। मनुष्य की यह साधारण-सी दुर्बलता है कि सबल के आगे दब जाता है और निर्बल पर अपना अधिकार जताने का प्रयत्न करता है, उसको अपनी शक्ति से आतंकित करने से भी नहीं चूकता। सच्चा मानवतावादी अपनी हानिकारक शक्तियों पर भी गर्व नहीं करता। उनके कारण तो वह सदा लज्जित ही रहता है।


हमें निर्बल को अपनी शक्ति का भय नहीं दिखाना चाहिए क्योंकि भय की प्रतीति स्थायी नहीं होती और दूसरे को कमजोर बना देती है। सबल के भय से असत्य को स्वीकार करना या उसमें सहयोग देना दुर्बलता और कायरता है। सत्यवादी सदा निर्भय रहता है। अत: निर्बलों का हमें सहानुभूतिपूर्ण आदर करना चाहिए।


अधिकार की भावना का त्याग
सच्चा मानवतावादी अपनी अधिकार की भावना से कभी आतंकित नहीं करता, न वह विद्या और धन के वैभव से दूसरों को आक्रांत करता है। शासित, सेवक तथा गरीब लोग प्राय: ‘अधिकृत’ समझे जाते हैं और दूसरे पक्ष वाले अपने को अधिकारी समझ कर अपनी इच्छाओं की अनुचित पूर्ति को भी धर्म समझते हैं जबकि यह दूषित मनोवृत्ति है। यह समता की भावना और मानवता के विरुद्ध है।


पर-गुण ग्राहकता
दूसरों के गुणों की अवमानना करना या अवगुणों को बढ़ा-चढ़ा कर कहना मानवता के विरुद्ध है। इसी प्रकार दूसरे के द्वारा किए हुए अपकार को याद रखना और उपकार को भूल जाना सज्जनता के विरुद्ध है। सज्जन लोग मित्रता और उपकार को पत्थर की लकीर के समान, मध्यम लोग बालू की लकीर की भांति जो थोड़ी देर तक बनी रहती है, फिर मिट जाती है और नीच लोग पानी की रेखा के समान, जो तुरन्त मिट जाती है, अपने पर अंकित रखते हैं। वैर के संबंध में सज्जन, मध्यम और नीच लोगों का व्यवहार इससे विपरीत होता है। सज्जनों के लिए वैर पानी की लकीर के समान होता है, मध्यम लोगों के लिए बालू की लकीर के समान और नीच के लिए पत्थर की लकीर के समान होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सज्जन उपकार और मित्रता को अधिक याद रखते हैं तथा दुर्जन शत्रुता को। सज्जन शत्रुता को शीघ्र ही भूल जाते हैं। 

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