हिंदी दिवस: रोचक जानकारी के साथ आज हर भारतीय ले ये प्रण

Edited By Punjab Kesari,Updated: 14 Sep, 2017 08:30 AM

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हमने औपचारिकता को ओढऩे-बिछाने का संस्कार विकसित कर लिया है। यही कारण है कि जब कभी हमारे सामने असफलताओं का परिदृश्य होता है तो हम संकल्प लेकर असफलता को सफलता में परिवर्तित करने के लिए

हमने औपचारिकता को ओढऩे-बिछाने का संस्कार विकसित कर लिया है। यही कारण है कि जब कभी हमारे सामने असफलताओं का परिदृश्य होता है तो हम संकल्प लेकर असफलता को सफलता में परिवर्तित करने के लिए उत्सवी औपचारिकता का निर्वाह करने लगते हैं। हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाना इसी प्रकार की एक औपचारिकता कही जा सकती है। 


हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प हो, हिंदी में ही कार्य करने का प्रण हो, हिंदी माध्यम से ही नई पीढ़ी को शिक्षित करने की इच्छा हो या हमारी तकनीकी पढ़ाई की पुस्तकों को हिंदी में निर्मित करने की आकांक्षा हो, मगर ये सब हमारे लिए अब औपचारिक और तथाकथित प्रतिबद्धताएं मात्र रह गई हैं। हमें इस कठोर सत्य को सहजता से हिंदी दिवस पर स्वीकार करना चाहिए। हम यदि अपने आपसे प्रश्न करें तो पाएंगे कि हमने अपनी मातृभाषा के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जो गर्व करने योग्य हो। 


शिक्षा के क्षेत्र में किसी विदेशी भाषा पर निर्भरता तो हमारे देश के लिए और भी घातक है क्योंकि हमारी शिक्षा प्रणाली पहले से तथ्यों को समझने और उन्हें अपने परिवेश से जोडऩे के लिए प्रेरित करने की बजाय केवल उन्हें रट कर परीक्षा में उत्तीर्ण मात्र कर देने के दोष से ग्रसित है। ऐसी स्थिति में शिक्षा के माध्यम के रूप में किसी ऐसी विदेशी भाषा का प्रयोग, जिसके जानकारों की संख्या इस देश में बराबर कम होती जा रही है, हमारी शिक्षा के इस दोष को जानबूझ कर बढ़ावा देने और इस तरह हमारी शिक्षा को और अधिक निरर्थक बनाने का ही काम कर सकता है। 


आज हिंदी के संबंध में वैधानिक स्थिति यह है कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी तथा अंग्रेजी भारत की राजभाषाएं हैं लेकिन हिंदी को कभी भी राष्ट्रभाषा के रूप में उस प्रकार घोषित नहीं किया गया है जैसे कि राष्ट्रगान या राष्ट्रध्वज को। राजभाषा अधिनियम 1963 के प्रावधानों और नियमों का यदि अवलोकन किया जाए तो सामने  आता है कि जब तक संविधान में संशोधन नहीं होता, तब तक वर्ष 1963 में संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित प्रस्ताव में अंर्तनहित उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो सकती। वर्ष 1967 में जो संविधान संशोधन हुआ उसके कारण अंग्रेजी की अधिकारिता कायम है। यह स्पष्ट है कि इस अधिकारिता को कभी समाप्त करने का सार्थक प्रयास समेकित रूप से नहीं हुआ। 


अंग्रेजी बोलने वाला सामान्यत: अपना संबंध जहां सामाजिक, आर्थिक या बौद्धिक रूप से अधिक संपन्न और ऊंचे लोगों के साथ जोडऩा चाहता है, वहीं वह पिछड़े और गरीब लोगों से अपना अलगाव भी प्रदर्शित करना चाहता है। अंग्रेजी के जानकार के सामने अपनी भाषा बोलने में जैसे उसे यह सोच कर संकोच होता है कि उससे बोलने वाले उसके रिश्तेदार गरीब और पिछड़े लोग हैं। विडंबना यह है कि ये गरीब और पिछड़े लोग अपनी प्रगति के लिए आदर और उम्मीद से अपने जिस संबंधी की ओर देखते हैं, उसी को वे अंग्रेजी के मोह से बंधा पाते हैं। 


आजादी के बाद जब अंग्रेजी विरोधी आंदोलन पूरे जोर-शोर से चला था, तब अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर दी गई थी। उसे पढ़ाना वैकल्पिक हो गया था। परिणाम यह हुआ कि लोगों में अंग्रेजी ज्ञान प्राय: कम ही रहा। दूसरी ओर अंग्रेजी पर अवलंबित करने की आदत बढ़ती चली गई। शासकीय कार्यालयों में अंग्रेजी की अपरिहार्यता न केवल बनी रही बल्कि बढ़ी भी। परिणाम यह हुआ कि अनेक बहुत पिछड़ गए। सरकारी तंत्र में वे उपेक्षित हो गए। अंग्रेजी का ज्ञान न होने के कारण वे उपहास का पात्र भी बने, कार्यालय में भी और अपने घर में भी क्योंकि बच्चे तो अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों, कॉन्वैंट में पढ़ते थे। यह परिदृश्य आज भी है किंतु राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण तंत्र में बार-बार हिंदी के प्रयोग के लिए परिपत्र जारी किए जाते हैं, निर्देश प्रसारित किए जाते हैं लेकिन आज भी अधिकारियों का एक वर्ग हिंदी में टिप्पणी लिखना या आदेश अंकित करना उचित नहीं मानता।  


स्वाधीनता आंदोलन के समय जिस तरह स्वदेशी को बढ़ावा देने के लिए विदेशी वस्त्रों की होली जलाना आवश्यक समझा गया था, उसी तरह लगता है आज एक राष्ट्रीय संपर्क भाषा की उन्नति के लिए अंग्रेजी के प्रभाव को कम करना आवश्यक हो गया है। भारत में अंग्रेजी के प्रयोग को समाप्त किए बिना राष्ट्रीय सम्पर्क की किसी भारतीय भाषा में नए शब्दों और नई अभिव्यक्तियों का निर्माण यथेष्ठ मात्र में कभी नहीं हो सकेगा। 


हालांकि इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि हिंदी के प्रति हमारी अब तक की उपेक्षा और लापरवाही के बावजूद इसका प्रचार-प्रसार निरंतर बढ़ता ही गया है। इसका श्रेय चाहे गांधी जी को जाए, सिनेमा को जाए, पर्यटन को जाए या हिंदी प्रचार से जुड़े विद्वानों और संगठनों को, हमें यह मानना ही पड़ेगा कि आज भारत के किसी भी राज्य में हिंदी समझने वालों की संख्या पहले के मुकाबले ज्यादा है और वहां अंग्रेजी का गैर जानकार व्यक्ति संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का ही सहारा लेता है। 


आवश्यकता इस बात की है कि अब तक हिंदी का जो प्रचार-प्रसार अचेतन और अनियोजित रूप से हुआ है, उसे आने वाले समय में हिंदी प्रेमी सचेतन और सुनियोजित रूप से करने का बीड़ा उठाएं। 

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