Edited By Punjab Kesari,Updated: 27 Oct, 2017 10:04 AM
आज हम भोगवादी सभ्यता में जी रहे हैं। हर कोई नाना प्रकार की सुविधाएं चाहता है। धन चाहता है, वैभव की आकांक्षा करता है
आज हम भोगवादी सभ्यता में जी रहे हैं। हर कोई नाना प्रकार की सुविधाएं चाहता है। धन चाहता है, वैभव की आकांक्षा करता है और क्षणिक सुख के पीछे दौड़ता है। इसी तरह मन भी बेकाबू होकर छलांग लगाता है, भांति-भांति की चीजों की ओर ललचाता है। यही दुख का कारण है। इसी से असंतोष और तनाव पनपता है। सिकंदर और डायोजनीज की कहानी आपने सुनी होगी। डायोजनीज संतोष का प्रतीक है, सिकंदर लोभ का। एक छोटा-सा झोंपड़ा भी डायोजनीज के लिए बहुत था, उसी में वह आनंदित था, परंतु सिकंदर सम्राट होकर भी असंतुष्ट था। विशाल साम्राज्य भी उसे संतुष्ट नहीं कर सका। वह पूरी दुनिया पर हुकूमत करना चाहता था।
वास्तव में सुख की ऐसी कोई शर्त नहीं है, लोभ की अवश्य है। लोभ जरूर कहता है कि पहले संसार को जीतो, तब सुख मिलेगा। पर सच यह है कि तब भी सुख नहीं मिल पाता है। गरीबी की गरिमा, सादगी का सौंदर्य, संघर्ष का हर्ष, समता का स्वाद और आस्था का आनंद, ये सब हमारे आचरण से पतझड़ के पत्तों की भांति झड़ गए हैं। मानवीय प्रेम या करुणा का संवेदनशील स्वर, नैतिक चिंतन की अवधारणा और सभ्यक आचरण का संकल्प कहीं खो गए हैं।
जीवन में एक है आवश्यकता और दूसरी है वासना। आपको जीवन की वास्तविक आवश्यकताएं तो पूरी करनी ही होंगी, जैसे रोटी, वस्त्र और एक छोटा-सा मकान। इससे आगे जो कुछ भी है वह वासना है। वासना अर्थात अहंकार, महत्वाकांक्षा, लोलुपता। उसे पूरा करने का कोई उपाय नहीं है। भोजन शरीर का ईंधन है, पर वासना ऐसी वस्तु नहीं है। वासना तो अवरोध उठाती है क्योंकि वह स्वयं एक अवरोध है। वह आपको भगाती है, दौड़ाती है। आवश्यकता कहती है मुझे रोटी चाहिए। वासना कहती है मुझे स्वर्णथाल में रोटी चाहिए। आवश्यकता कहती है मुझे वस्त्र चाहिए, वासना कहती है मुझे अन्य लोगों से सुंदर वस्त्र चाहिए।
आवश्यकता शरीर की तृप्ति चाहती है, वासना अहंकार की तृप्ति का प्रयास करना चाहती है, परंतु अहंकार तो कभी किसी का तृप्त हुआ ही नहीं है। अपनी सोच को सकारात्मक बनाइए। सुंदर सोच से ही संतोष का जन्म होता है। यह आपको जहां है वहीं शहंशाह बना देता है। संतोष से सुख नहीं उपजता, बल्कि संतोष स्वयं सुख है। संतोष स्वयं एक परितृप्ति है।