जगन्नाथपुरी की चौंका देने वाली अनोखी बातें, जो कम लोग जानते हैं

Edited By ,Updated: 05 Oct, 2016 03:24 PM

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जगन्नाथपुरी ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से 60 कि.मी. दूर है। भुवनेश्वर ही निकटतम हवाई अड्डा है तो राजधानी ट्रेन भी वहीं तक जाती है।  पुरी और भगवान जगन्नाथ एक-दूसरे के पर्याय हैं। भारतीय विद्वानों का विश्वास है कि यह चौथा परम धाम है।

जगन्नाथपुरी ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से 60 कि.मी. दूर है। भुवनेश्वर ही निकटतम हवाई अड्डा है तो राजधानी ट्रेन भी वहीं तक जाती है।  पुरी और भगवान जगन्नाथ एक-दूसरे के पर्याय हैं। भारतीय विद्वानों का विश्वास है कि यह चौथा परम धाम है। शेष तीन धाम क्रमश: बद्रीनाथ सतयुग का, रामेश्वरम त्रेता का तथा द्वापर का द्वारका धाम है जबकि वर्तमान कलियुग का पावनकारी धाम तो जगन्नाथपुरी ही है। हर वर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को होने वाली विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा में भाग लेने के लिए देश-विदेश के लाखों श्रद्धालु भक्त पुरी पहुंचते हैं। रथयात्रा में मंदिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा भव्य और सुसज्जित रथों पर सवार होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। 


यह मंदिर वैष्णव परम्पराओं और संत रामानंद से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिए खास महत्व रखता है। इस पंथ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।


जगन्नाथ पुरी का इतना महत्व रहा है कि महाराजा रणजीत सिंह ने अपने अंतिम दिनों में की गई वसीयत में अपना विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा इस मंदिर को भेंट करने की बात कही थी लेकिन उस समय तक अंग्रेजों ने पंजाब पर अपना अधिकार करके उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी वर्ना कोहिनूर हीरा आज ब्रिटेन की महारानी की बजाय भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शोभा बढ़ा रहा होता।


जगन्नाथ जी के इस मंदिर को लेकर अनेक विश्वास हैं। एक कथा के अनुसार सर्वप्रथम एक सबर आदिवासी विश्वबसु ने नील माधव के रूप में जगन्नाथ की आराधना की थी। इस तथ्य को प्रमाणित बताने वाले आज भी जगन्नाथ पुरी के मंदिर में आदिवासी मूल के अनेकों सेवक हैं जिन्हें दैतपति नाम से जाना जाता है, की उपस्थिति का उल्लेख करते हैं। विशेष बात यह है कि भारत सहित विश्व के किसी भी अन्य वैष्णव मंदिर में इस तरह की कोई परम्परा नहीं है।


बेशक जगन्नाथ जी को श्रीकृष्ण का अवतार माना जाता है लेकिन जहां तक जगन्नाथ पुरी के ऐतिहासिक महत्व का प्रश्र है, पुरी का उल्लेख सर्वप्रथम महाभारत के वनपर्व में मिलता है। इस क्षेत्र की पवित्रता का बखान कूर्म पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण आदि में यथेष्ट रहा है।


7वीं सदी में इंद्रभूति ने बौद्ध धर्म के बज्रायन परम्परा के आरंभ से पुरी के बारे में कुछ प्रमाणित जानकारी मिलती है। उसके बाद पुरी वज्रायन परम्परा का पूर्व भारत में एक बड़ा केंद्र बन गया था। वज्रायन के संस्थापक इंद्रभूति ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ज्ञानसिद्धि में जगन्नाथ का उल्लेख किया है जिससे यह संकेत मिलता है कि उन दिनों जगन्नाथ का संबोधन गौतम बुद्ध के लिए भी किया जाता था। कुछ इतिहासकारों के मतानुसार इस स्थान पर बौद्ध स्तूप था जहां गौतम बुद्ध का पवित्र दांत रखा था। बाद में उसे कैंडी, श्रीलंका पहुंचा दिया गया।


उस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज चल रहा था। कुछ का मत है कि जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा वास्तव में बौद्ध धर्म के बुद्ध, संघ और धम्म के प्रतीक हैं। 15 से 17वीं सदी के ओडिया साहित्य में भी लगभग यही मत ध्वनित होता है।
 

आदि शंकराचार्य की आध्यात्मिक भारत यात्रा इतिहास का एक महत्वपूर्ण और निर्णायक अध्याय है। इस विजय यात्रा के दौरान पुरी भी आदि शंकराचार्य का पड़ाव रहा। अपने पुरी प्रवास के दौरान उन्होंने अपनी विद्वत्ता से यहां के बौद्ध मठाधीशों को परास्त कर उन्हें सनातन धर्म की ओर आकृष्ट करने में सफलता प्राप्त की। शंकराचार्य जी द्वारा यहां गोवर्धन पीठ भी स्थापित की गई। इस पीठ के प्रथम जगतगुरु के रूप में शंकराचार्य जी ने अपने चार शिष्यों में से एक पद्मपदाचार्य (नम्पूदिरी ब्राह्मण) को नियुक्त किया था।


यह सर्वज्ञात है कि शंकराचार्य जी ने ही जगन्नाथ की गीता के पुरुषोत्तम के रूप में पहचान घोषित की थी। संभवत: इस धार्मिक विजय के स्मरण में ही श्री शंकर एवं पद्मपाद की मूर्तियां जगन्नाथ जी के रत्न सिंहासन में स्थापित की गईं थीं। मंदिर द्वारा ओडिशा में प्रकाशित अभिलेख मदलापंजी के अनुसार पुरी के राजा दिव्य सिंहदेव द्वितीय (1763 से 1768) के शासनकाल में उन दो मूर्तियों को हटा दिया गया था।


12वीं सदी में पुरी में श्री रामानुजाचार्य जी के आगमन और उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर तत्कालीन राजा चोलगंग देव जिसके पूर्वज 600 वर्षों से परम महेश्वर रहे, उनकी आसक्ति वैष्णव धर्म के प्रति हो गई। तत्पश्चात अनेक वैष्णव आचार्यों ने पुरी को अपनी कर्मस्थली बनाकर यहां अपने मठ स्थापित किए और इस तरह पूरा ओडिशा ही धीरे-धीरे वैष्णव रंग में रंग गया।


एक अन्य कथा के अनुसार राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न में जगन्नाथ जी के दर्शन हुए और निर्देशानुसार समुद्र से प्राप्त काष्ठ (काष्ठ को यहां दारु कहा जाता है) से मूर्तियां बनाई गईं। उस राजा ने ही जगन्नाथ पुरी का मंदिर बनवाया था जबकि ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार पुरी के वर्तमान जगन्नाथ मंदिर का निर्माण वीर राजेन्द्र चोल के पौत्र और कङ्क्षलग के शासक अनंतवर्मन चोड्गंग (1078-1148) ने करवाया था। 1174 में राजा आनंग भीम देव ने इस मंदिर का विस्तार किया जिसमें 14 वर्ष लगे। वैसे मंदिर में स्थापित बलभद्र जगन्नाथ तथा सुभद्रा की काष्ठ मूर्तियों का पुनर्निर्माण 1863, 1939, 1950, 1966 तथा 1977 में भी किया गया था।


बाहर से मंदिर किलेनुमा दिखता है जिसकी चारदीवारी 20 फुट ऊंची है। अत: मंदिर का ऊपरी हिस्सा ही बाहर से दिखाई देता है।  182 फुट ऊंचाई शिखर वाले जगन्नाथ जी के इस मंदिर को ओडिशा का सबसे ऊंचा मंदिर माना जाता है। यह मंदिर लगभग 4 लाख वर्ग फुट क्षेत्र में फैला हुआ है। इस परिसर में 120 अन्य देवी-देवताओं के आवास भी हैं। लगभग हर मंदिर में मंडप और गर्भ गृह हैं। एकदम बाहर की तरफ भोग मंदिर, उसके बाद नट मंदिर (नाट्यशाला) फिर जगमोहन अथवा मंडप जहां श्रद्धालु एकत्रित होते हैं और अंत में देउल (गर्भगृह) जहां जगन्नाथ जी अपने भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा के साथ विराजे हुए हैं। इन दिनों यहां जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा है क्योंकि पिछले दिनों मंदिर के पिलर और आर्क में तीन दरारें देखी गई थीं।


जगन्नाथ पुरी में बैसाख तृतीया से ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमी तक, 21 दिन की चंदन यात्रा भी होती है। वैसे आषाढ़ शुक्ल द्वितीय को होने वाली रथयात्रा ही यहां का प्रधान उत्सव है जिसके अवलोकन के लिए देश-विदेश के लाखों लोग पुरी पधारते हैं। इस रथ यात्रा महोत्सव के दौरान भगवान श्री जगन्नाथ के दर्शन को आड़प दर्शन कहा जाता है जिसका कि पुराणों में बड़ा महात्म्य बताया गया है।


जगन्नाथ जी का यह मंदिर देश का एक प्रसिद्ध सामाजिक एवं धार्मिक केंद्र है। जगन्नाथ मंदिर का एक विशेष आकर्षण यहां की रसोई है जो भारत की सबसे बड़ी रसोई  कही जाती है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए सैंकड़ों रसोइए कार्यरत हैं। मंदिर के आपसपास सर्वाधिक बिकने वाले पुरी के विशिष्ट पकवान ‘खाजा’ का आनंद जरूर लें। 


वैसे मंदिर के आसपास की दुकानों पर शंख सहित अन्य समुद्री उत्पाद तथा भगवान जगन्नाथ जी के दारू (लकड़ी) के स्वरूप विशेष रूप से मिलते हैं लेकिन दाम में मोलभाव की बहुत गुंजाइश रहती है। विशेष बात यह भी है कि हमने कच्ची हरी मिर्च, पीली मिर्च, लाल मिर्च तो देखी थी लेकिन पुरी में भोजन के साथ हर बार सलाद में लगभग काले रंग की मिर्च अवश्य मिलती है।
 

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