रविवार को यहां दर्शनों से होता है दरिद्रता का नाश, पूजन से मिटते हैं रोग

Edited By ,Updated: 27 Nov, 2015 04:06 PM

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इम्द्रो विश्वावसुश्श्रोता चेलापुत्रस्तथाङ्गिरा:। प्रम्लोचा राक्षसश्शर्यो नभोमासं नयन्त्यमी।।1।। सहस्त्ररश्मिसंवीतमिन्द्रं वरदमाश्रये।

इम्द्रो विश्वावसुश्श्रोता  चेलापुत्रस्तथाङ्गिरा:।

प्रम्लोचा राक्षसश्शर्यो नभोमासं नयन्त्यमी।।1।।

सहस्त्ररश्मिसंवीतमिन्द्रं वरदमाश्रये। 

शिरसा प्रणमाम्यद्य श्रेयो वृद्धिप्रदायकम्।।2।।

श्रावण मास के अधिपति सूर्य का नाम इंद्र आदित्य है। वे अपने रथ पर अंगिरा ऋषि, विश्वावसु गंधर्व, प्रम्लोचा अप्सरा, एलापुत्र नाग, श्रोता यक्ष तथा शर्य राक्षस के साथ चलते हैं। मैं सहस्रों रश्मियों से आवृत्त ऐसे वरदाता इंद्र आदित्य की शरण ग्रहण करता हूं। उन्हें शिरसा प्रणाम करता हूं। वे मुझे कल्याण एवं वृद्धि प्रदान करें। इंद्र आदित्य सात सहस्त्र रश्मियों से तपते हैं तथा उनका वर्ण श्वेत है।

मयूखादित्य की कथा 

पूर्वकाल में त्रिभुवन विख्यात काशी में पञ्चगङ्गा के निकट भगवान् सूर्य ने अत्यंत उग्र तपस्या की। गभस्तीश्वर नामक शिवलिंग और मङ्गलागौरी की स्थापना करके उनकी आराधना करते हुए भगवान सूर्य तीव्र तेज से प्रज्वलित हो उठे। उस समय पृथ्वी और आकाश उनके प्रचंड तेज से संतप्त हो उठे। उनकी तपस्या और तेज:पुञ्ज की तपोमयी ज्वालाओं से तीनों लोकों के प्राणी दग्ध होने लगे। वे सब सोचने लगे, ‘‘अहो! सूर्यदेव सम्पूर्ण जगत् की आत्मा हैं। यदि यही हमें जलाने लगे तो फिर कौन हमारा रक्षक होगा?’’

सम्पूर्ण सृष्टि को व्याकुल देख कर विश्व रक्षक भगवान विश्वनाथ सूर्य को वर देने के लिए गए। परंतु सूर्य तो समाधि में अपने-आपको भी भूल गए थे। अत्यंत निश्चल भाव से समाधिस्थ अंशुमाली से भगवान् शिव ने कहा, ‘‘सूर्यदेव! अब तुम्हें तपस्या की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम अपनी इच्छानुसार वर मांगो।’’

परंतु सूर्यदेव तो समाधिस्थ थे। उन्हें बाह्य संसार का कोई आभास ही नहीं था। अत: उन्होंने भगवान् शिव की बात सुनी ही नहीं। अंत: में समाधिस्थ सूर्य को जगाने के लिए भगवान् शिव ने उन्हें स्पर्श किया। उनका स्पर्श पाते ही विश्व लोचन सूर्य ने आंखें खोलीं और अपने ईष्ट भगवान शंकर को प्रत्यक्ष देखकर साष्टाङ्ग प्रणाम किया। तदनन्तर भगवान् भूत भावन शिव की उन्होंने नाना प्रकार से स्तुति की। भगवान् शिव की महाशक्ति मङ्गलागौरी को भी बारम्बार सूर्य ने प्रणाम किया तथा मङ्गलाष्टक नामक स्तोत्र से उनकी स्तुति की।

भगवान् शिव ने कहा, ‘‘सूर्यदेव! उठो, तुम्हारा कल्याण हो। महामते! मैं तुम पर भली भांति प्रसन्न हूं। तुमने जिन स्तोत्रों से मेरा और मङ्गलागौरी का स्तवन किया है, उन स्तोत्रों का पाठ करने वालों की सुख-सम्पदा, पुत्र-पौत्रादि की वृद्धि होगी। तुमने भक्ति भाव से चम्पा और कमल के समान कांति वाली किरणों से जो इस लिंग का पूजन किया है उससे इसका नाम गभस्तीश्वर लिंग होगा। जो स्त्री या पुरुष चैत्र शुक्ल  तृतीया को उपवास करके मङ्गलागौरी का पूजन करेगा वह कभी दुर्भाग्य या दरिद्रता को नहीं प्राप्त होगा। यहां तपस्या करते समय तुम्हारे मयूख-समूह (किरणपुञ्ज) ही देखे गए हैं। अत: अदितिनंदन तुम्हारा नाम मयूखादित्य होगा। तुम्हारी पूजा करने से मनुष्यों को कोई रोग व्याधि नहीं होगी। रविवार को मङ्गलागौरी के साथ काशी में तुम्हारे दर्शन से दरिद्रता का नाश होगा।

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