अद्भुत आस्था केंद्र: शक्करबार शाह की दरगाह, जन्माष्टमी पर लगता है मेला

Edited By ,Updated: 24 Aug, 2016 07:55 AM

shakarbar shah dargah

राजस्थान में एक दरगाह ऐसी भी हैं जहां श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर मेला लगता है। झुंझुनू जिले के नरहड़ कस्बे में स्थित पवित्र शक्करबार शाह की दरगाह,

राजस्थान में एक दरगाह ऐसी भी हैं जहां श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर मेला लगता है। झुंझुनू जिले के नरहड़ कस्बे में स्थित पवित्र शक्करबार शाह की दरगाह, कौमी एकता की जीवन्त मिसाल है। इस दरगाह की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां सभी धर्मों के लोगों को अपनी-अपनी धार्मिक पद्धति से पूजा-अर्चना करने का अधिकार है। कौमी एकता के प्रतीक के रूप में ही यहां प्राचीन काल से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर विशाल तीन दिवसीय मेला भरता है  जिसमें हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी पूरी श्रद्धा से शामिल होते हैं। जायरीन यहां हजरत हाजिब की मजार पर चादर, कपड़े, नारियल, मिठाइयां और नकद रुपया भी भेंट करते हैं।

 

यह ऐतिहासिक मेला और अष्टमी की रात होने वाला रतजगा सूफी संत हजरत शक्करबार शाह की इस दरगाह को देशभर में कौमी एकता की अनूठी मिसाल का अद्भुत आस्था केंद्र बनाता है। जहां हर धर्म-मजहब के लोग हर प्रकार के भेदभाव को भुलाकर बाबा की बारगाह में सजदा करते हैं। दरगाह के खादिम एवं इंतजामिया कमेटी करीब सात सौ वर्षों से अधिक समय से चली आ रही सांप्रदायिक सद्भाव को प्रदर्शित करने वाली इस अनूठी परंपरा को सालाना उर्स की माफिक ही आज भी पूरी शिद्दत से पीढ़ी दर पीढ़ी निभाते चले आ रहे हैं।

 

 भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की छठ से शुरू होने वाले इस धार्मिक आयोजन में दूर-दराज से नरहड़ आने वाले हिंदू श्रद्धालु दरगाह में नवविवाहितों के गठजोड़े की जात एवं बच्चों के जड़ूले उतारते हैं। दरगाह के वयोवृद्ध खादिम हाजी अजीज खान पठान बताते हैं कि यह कहना तो मुश्किल है कि नरहड़ में जन्माष्टमी मेले की परम्परा कब और कैसे शुरू हुई, लेकिन इतना जरूर है कि देश विभाजन एवं उसके बाद और कहीं संप्रदाय, धर्म-मजहब के नाम पर भले ही हालात बने-बिगड़े हों पर नरहड़ ने सदैव हिंदू-मुस्लिम भाई-चारे की मिसाल ही पेश की है। वह बताते हैं कि जन्माष्टमी पर जिस तरह मंदिरों में रात्रि जागरण होते हैं ठीक उसी प्रकार अष्टमी को पूरी रात दरगाह परिसर में चिड़ावा के प्रख्यात दूलजी राणा परिवार के कलाकार ख्याल (श्रीकृष्ण चरित्र नृत्य नाटिकाओं) की प्रस्तुति देकर रतजगा कर पुरानी परम्परा को आज भी जीवित रखे हुए हैं। यह मेला अष्टमी एवं नवमी को पूरे परवान पर रहता है।

 

मान्यता है कि पहले यहां दरगाह की गुम्बद से शक्कर बरसती थी इसी कारण यह दरगाह शक्कर बार बाबा के नाम से भी जानी जाती हैं। शक्करबार शाह अजमेर के सूफी संत ख्वाजा मोइनुदीन चिश्ती के समकालीन थे तथा उन्हीं की तरह सिद्ध पुरुष थे। शक्करबार शाह ने ख्वाजा साहब के 57 वर्ष बाद देह त्यागी थी। 

 

राजस्थान व हरियाणा में तो शक्करबार बाबा को लोक देवता के रूप में पूजा जाता है। शादी, विवाह, जन्म, मरण कोई भी कार्य हो बाबा को अवश्य याद किया जाता है। इस क्षेत्र के लागों की गाय, भैंसों के बछड़ा जनने पर उसके दूध से जमे दही का प्रसाद पहले दरगाह पर चढ़ाया जाता है तभी पशु का दूध घर में इस्तेमाल होता है। हाजिब शक्करबार साहब की दरगाह के परिसर में एक विशाल पेड़ है जिस पर जायरीन अपनी मन्नत के धागे बांधते हैं। मन्नत पुरी होने पर गांवों में राती जगा होता है जिसमें महिलाएं बाबा के बखान के लोकगीत जकड़ी गाती हैं।

 

नरहड़ गांव कभी राजपूत राजाओं की राजधानी हुआ करता था। उस समय यहां 52 बाजार थे। मजार तक पहुंचने वाले प्रत्येक जायरीन को यहां तीन दरवाजों से गुजरना पड़ता है। पहला दरवाजा बुलंद दरवाजा है, दूसरा बसंती दरवाजा और तीसरा बगली दरवाजा है। इसके बाद मजार शरीफ और मस्जिद है। 

 

बुलंद दरवाजा 75 फुट ऊंचा और 48 फुट चौड़ा है। मजार का गुंबद चिकनी मिट्टी से बना हुआ है, जिसमें पत्थर नहीं लगाया गया है। कहते हैं कि इस गुंबद से शक्कर बरसती थी, इसलिए बाबा को शक्कर बार नाम मिला। नरहड़ के इस जौहड़ में दूसरी तरफ पीर बाबा के साथी दफन हैं, जिन्हें घरसों वालों का मजार के नाम से जाना जाता है। 

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