तलाशती दलित राजनीति

Edited By Punjab Kesari,Updated: 19 Feb, 2018 05:40 PM

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दलित समुदाय की आकांक्षाएं सामान्यतः हमेशा से शिक्षा और रोजगार के जरिए समाज के मुख्यधारा में लौट आने की रही है फिर चाहे किसी मसले पर दलित समुदायों के बीच आपसी मतभेद ही क्यों न हो। दलित समुदाय के लिए सबसे बडा और अंतिम ईक्का राजनीति है। क्षेत्रीय...

दलित समुदाय की आकांक्षाएं सामान्यतः हमेशा से शिक्षा और रोजगार के जरिए समाज के मुख्यधारा में लौट आने की रही है फिर चाहे किसी मसले पर दलित समुदायों के बीच आपसी मतभेद ही क्यों न हो। दलित समुदाय के लिए सबसे बडा और अंतिम ईक्का राजनीति है। क्षेत्रीय स्तर पर बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, जम्मू-काश्मीर से लेकर दक्षिण भारत तक दलित आंदोलनों का मुख्य उद्देश्य सामाजिक सम्मान और राजनीति में उचित प्रतिनिधित्व के जरिए अपना सामुहिक विकास करना रहा है। लेकिन विकास की राजनीति में दलितों की नीति हमेशा परिमाण की आकांक्षा रखने के पश्चात भी उसे प्राप्त करने से चूक जाती है। 1990 के दशक में बहुजन राजनीति ने दलितों की आकांक्षाओं को पूर्ण करने के लिए एक उचित प्रयास किया किंतु पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश में बहुजन राजनीति की कमजोरी स्पष्ट झलकती है। अवसरवाद और स्वार्थ हितों की साधना ने विभिन्न दलित समुदायों के मध्य टकरावपन की विचलित धारणा को जन्म दिया है। 

 

दलितों के नेता कांशीराम ने दलित प्रवृति को समझते हुए राजनीति में दलितों की सहभागिता को "देने वाली राजनीतिक शक्ति" के उभरते रूप का स्वप्न देखा था न कि "लेने वाले समूह" के रूप में। उनके इस स्वप्न को आकार देने के लिए बहुजन राजनीति ने प्रयास किया किंतु "देने वाली राजनीतिक शक्ति की धारणा" से ओत-प्रोत होकर उसने स्वयं अपनी राजनीति शक्ति को बिखरा दिया। वैकल्पिक राजनीति की तलाश में दलित राजनीति बेहाल हो रही है। आखिरकार ऐसा क्यों है? इसका सटीक कारण राजनीति और सत्ता की प्राप्ति के लिए दलित समुदायों के बीच का तकरार रहा है। हालांकि एक ओर सामाजिक परिवेश में दलितों की स्थिति बदलावों के दौर से गुज़र रही है वहीं दूसरी ओर उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति अभावों की डोर से टूटने का नाम ही नहीं लेती। बदलते परिलेश में दलित राजनीति का भविष्य अधर में लटका प्रतीत हो रहा है, कारण है उनकी आपसी सामंजस्यता के मध्य असामंजस्यता के बीज़ बोना।

 

पिछले दो-तीन सालों में दलितों की समस्या सरकार के समक्ष बड़ी चुनौती भले ही रही हो लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि 'दलितों को समाज में सम्मान मिले तथा उनकी लोकतंत्र में सक्रिय भागीदारी हो' इस कथन का संकल्प आज भी अधूरा है। इस संकल्प के अधूरेपन के पीछे दलित समुदायों का अंधेरापन है। दलित समुदाय अपने को समाज में सम्मानपूर्वक स्थापित करने के लिए भरसक प्रयास करे किंतु वे प्रयास सामुहिक नेतृत्व और उचित प्रतिनिधित्व के अभाव में अधूरे रह जाएंगें। लोकतंत्र ने दलित राजनीति को उड़ने के लिए पंख दिए और चुनाव के माध्यम से उन्हें अपनी क्षमता को प्रदर्शित करने का मौका प्रदान किया लेकिन हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है। अब तो विकास की बहती धारा में दलितों के पास विकल्प के तौर पर राजनीति ही ऐसा माध्यम बची हुई है जिससे वे अपनी आकाक्षाओं की पूर्ति कर सकते हैं। सवाल उठता है कि दलित समुदाय किस तरह राजनीति में स्वयं को कायम रखेगा? विशेषतौर पर सामाजिक सम्मान पाने की आस में दलित समुदाय आपसी मान-सम्मान को तोड़ रहें हैं। भविष्य में दलित राजनीति को उभरने का अवसर मिलेगा या नहीं इसका फैसला वर्तमान में दलित समुदाय को आपसी विमर्श से ही करना होगा। दलित समुदाय विकल्प की राजनीति को तलाशने में लगा है इस संकल्प को लेकर कि वह दिन जरूर आएगा जब राजनीति के गलियारे में दलित समुदाय के बोल शामिल होगें।

 

अंकित कुंवर

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