गुजरात के भाल पर चुनावी महासंग्राम

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Jan, 2018 05:04 PM

electoral mahasangram at the behest of gujarat

गुजरात विधानसभा के चुनाव घोषित होते ही देश में उसके संभावित परिणामों को लेकर उत्सुकता बढ़ गई है। वैसे तो सभी चुनाव चुनौतीपूर्ण होते हैं, परंतु गुजरात चुनावों को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्सुकता है, क्योंकि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहराज्य है। इस...

गुजरात विधानसभा के चुनाव घोषित होते ही देश में उसके संभावित परिणामों को लेकर उत्सुकता बढ़ गई है। वैसे तो सभी चुनाव चुनौतीपूर्ण होते हैं, परंतु गुजरात चुनावों को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्सुकता है, क्योंकि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहराज्य है। इस बार के वहां के चुनाव परिणाम देश की भावी राजनीति की दिशा भी तय करेगा। न केवल भावी राजनीति की बल्कि मोदी की भी दिशा तय होने वाली है। इसलिये विभिन्न राजनीति दल पूरी जोर आजमाइश कर रहे हैं। नेता न सिर्फ एक खेमे से दूसरे खेमे में आ-जा रहे हैं बल्कि एक-दूसरे के खिलाफ आग भी उगलने लगे हैं। लोक-लुभावन घोषणाएं भी बहुत हो चुकी है। चुनावी माहौल काफी गरमा गया है। गुजरात चुनाव को लेकर जनता में इतनी उत्सुकता पहले कभी नहीं दिखी। इसे गुजरात की चुनावी राजनीति में महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जा रहा है। 

 

वहां के नतीजे क्या होंगे? कैसे होंगे? कौन जीतेगा? कौन हारेगा? यह तो मायने रखता ही है- इससे भी ज्यादा मायने रखता है कि इस बार जो लोगों की आकांक्षाएं बनी हैं, वह कौन, किस तरह पूरी करेगा? कांग्रेस तो इस चुनाव को लेकर गंभीर हुई है, लेकिन भाजपा को गंभीर होना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो आगामी विधानसभा, बल्कि 2019 के लोकसभा चुनावों पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। जनमत का फलसफा यही है और जनमत का आदेश भी यही है कि चुने हुए प्रतिनिधि मतदाताओं के मत के साथ उनकी भावनाओं को भी उतना ही अधिमान दें। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक सही अर्थों में लोकतंत्र का स्वरूप नहीं बनेगा तथा असंतोष किसी-न-किसी स्तर पर व्याप्त रहेगा। 

 

यक्ष प्रश्न यह है कि गुजरात के मतदाता के समक्ष राज्य सरकार चुनने के संबंध में क्या विकल्प हैं? लोकतंत्र में मतदाता को किसी एक पार्टी को चुनते-चुनते ऊब-सी हो जाती है और वह तब बदलाव चाहने लगता है जब लंबे समय तक सत्ता में रहने वाली पार्टी और सरकार जनता के प्रति अत्यंत संवेदनशील और समर्पित न हो। लेकिन गुजरात में अभी ऐसे हालात तो नजर नहीं आ रहे हैं। गुजरात को भाजपा का गढ़ माना जाता है। नरेन्द्र मोदी का यहां का इतिहास समृद्ध और गौरवशाली रहा है। गुजरात के विकास की मिसाल देकर उन्होंने देश भर में वोट मांगे। लेकिन पिछले कुछ समय से विकास के गुजरात मॉडल को गुजरात में ही चुनौती दी जाने लगी है। मोदी गुजरात के लिए ताबड़तोड़ घोषणाएं किए जा रहे हैं, लेकिन सतह पर इसका ज्यादा प्रभाव नहीं दिख रहा है। कभी उन्होंने यहां के लोगों पर एक जादुई प्रभाव छोड़ा था, लेकिन अभी उनकी सभाओं में भीड़ कम आ रही है। बीजेपी के सबसे बड़े समर्थक पटेल समुदाय का एक तबका बीजेपी के खिलाफ बोल रहा है। गाय को लेकर ऊना में दलितों के साथ हुई मारपीट के बाद से इस तबके में गुस्सा है। ऊपर से बाढ़ ने भी काफी नुकसान किया है। किसान उपज का सही मूल्य न मिलने से पहले ही नाराज थे। 

 

बाढ़ से उनकी हालत और खराब हो गई है। राहत में सुस्ती दिखने के कारण भी कुछ इलाकों में सरकार के प्रति गुस्सा है। नोटबंदी एवं जीएसटी ने व्यापारियों की कमर तोड़ दी है। आदिवासी समुदाय भी इसलिये नाराज है कि उनके अधिकारों को गलत तरीकों से दूसरों को दिया गया है, दस लाख से अधिक फर्जी आदिवासी बना दिये गये हैं। जाहिर है, यह चुनाव हिंदुत्व और मोदी लहर, दोनों के लिए एक बड़ी परीक्षा जैसा है। हिंदुत्व के अजेंडे को बेलाग-लपेट आगे बढ़ाने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लगाया गया है। कांग्रेस की हालत गुजरात में काफी खस्ता मानी जाती रही है, लेकिन अभी उसके खेमे में उत्साह दिख रहा है। राज्य सभा चुनाव में अहमद पटेल की जीत से भी उसका हौसला बढ़ा है। स्थानीय चुनावों में उसकी जीत से भी हौसले बुलन्द हैं। इधर राहुल गांधी में कुछ परिपक्वता के दर्शन हो रहे हैं, कुछ राजनीति दांवपेच उनके पक्ष में गये हैं। 

 

यही कारण है और ऐसा पहली बार ही हो रहा है कि जहां-जहां राहुल गांधी जा रहे हैं, वहां बाद में मोदी को भी जाना पड़ रहा है। जाहिर है, यह चुनाव राहुल और मोदी, दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। जल्द ही राहुल को कांग्रेस का नेतृत्व संभालना है। अगर गुजरात में कांग्रेस चमत्कार कर सकी तो उनकी आगे की राह आसान हो जाएगी। लेकिन यह डगर उनके लिये आसान नहीं है। भाजपा एवं मोदी के लिये गुजरात एक चुनौती बन गया हैं। पंद्रह दिन पहले बीजेपी में शामिल हुए पाटीदार नेता निखिल सवानी ने पार्टी पर खरीद-फरोख्त का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दे दिया है, जबकि इससे पहले एक और पाटीदार नेता नरेंद्र पटेल ने बीजेपी पर एक करोड़ का लालच देने का आरोप लगाया है। पिछड़ा-दलित-आदिवासी एकता मंच के नेता अल्पेश ठाकौर पूरे तामझाम के साथ कांग्रेस में शामिल हो चुके हैं। बीजेपी के लिए यह सब किसी झटके से कम नहीं है, हालांकि इस राज्य में उसकी ताकत इतनी बड़ी है कि ऐसी खबरें उसे विचलित नहीं कर सकतीं। गुजरात का चुनाव इस मायने में भाजपा के लिये अहम है कि विभिन्न सहयोगी विचारधाराएं एवं अन्दरूनी शक्तियां ही विद्रोह की मुद्रा में खड़ी हैं।

 

दलितों के नेता माने जाने वाले जिग्नेश मेवानी तथा पाटीदार आरक्षण आंदोलन समिति के संयोजक हार्दिक पटेल कांग्रेस के पक्ष में आ चुके हैं। भले ही पटेल ने चुनाव लड़ने के कांग्रेस के प्रस्ताव को ठुकरा दिया है, लेकिन वह बीजेपी के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। बीजेपी के विरुद्ध प्रचार का मतलब है कांग्रेस का समर्थन। एक निष्कर्ष यह निकाला जा रहा है कि अगर पिछड़ों, दलितों और पाटीदारों यानी पटेलों का एक बड़ा वर्ग कांग्रेस के साथ आ गया तो फिर बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। लेकिन क्या यह उतना ही आसान है जितना बताया या समझा जा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि तीन युवा नेताओं का कांग्रेस के साथ खड़ा होना निराश कांग्रेस में उम्मीदें लेकर आया है। कुछ महीने पहले तक जिस कांग्रेस को छिड़क देने वालों का तांता लगा था, उसकी ओर ऐसे लोगों के आने का एक संदेश यह निकलता है कि शायद जनता का झुकाव धीरे-धीरे उसकी ओर हो रहा है। 

 

दरअसल लोग मान कर चल रहे हैं कि इन तीनों युवाओं का अपने समुदायों पर अच्छा-खासा असर है और ये किसी को भी उनके एकमुश्त वोट दिला सकते हैं। गुजरात में ओबीसी की 146 जातियों का हिस्सा 51 प्रतिशत के करीब है। यह बहुत बड़ी आबादी है। कई राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि 182 में से 110 सीटों पर इनका प्रभाव है। 60 सीटों पर इनकी भूमिका निर्णायक है। पिछड़ों में एक जाति विशेष के खिलाफ कुछ जातियों में असंतोष भी है। गुजरात में पाटीदार और दलित समुदाय की आबादी 25 प्रतिशत है। कांग्रेस मानती है कि आदिवासी समुदाय के बीच उसका जनाधार पहले से है। गुजरात आम तौर पर व्यापार बहुल राज्य माना जाता रहा है। गुजरात में छोटे यानी मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय व्यापारियों की संख्या काफी ज्यादा है। ये सब मोटे तौर पर लंबे समय से बीजेपी को वोट करते आ रहे थे। नोटबंदी के तत्काल बाद जीएसटी लागू कर दिए जाने से उनके अंदर भी असंतोष दिख रहा है। कांग्रेस इसका भी लाभ उठाना चाहती है। 

 

वह नोटबंदी और जीएसटी को जमकर कोस रही है। राहुल गांधी अपने हर भाषण में इसका विस्तार से जिक्र करते हैं। चुनाव मात्र राजनीति प्रशासक ही नहीं चुनता बल्कि इसका निर्णय पूरे अर्थतंत्र, समाजतंत्र आदि सभी तंत्रों को प्रभावित करता है। लोकतंत्र में चुनाव संकल्प और विकल्प दोनों देता है। चुनाव में मुद्दे कुछ भी हों, आरोप-प्रत्यारोप कुछ भी हां, पर किसी भी पक्ष या पार्टी को मतदाता को भ्रमित नहीं करना चाहिए। ”युद्ध और चुनाव में सब जायज़ है“। इस तर्क की ओट में चुनाव अभियान को निम्न स्तर पर ले जाने वाले किसी का भी हित नहीं करते। पवित्र मत का पवित्र उपयोग हो। गुजरात के भाल पर लोकतंत्र का तिलक शुद्ध कुंकुम और अक्षत का हो। मत देते वक्त एक क्षण के लिए अवश्य सोचें कि आपका मत ही गुजरात रूपी चमन को सही बागवां देगा। नरेन्द्र मोेदी एवं अमित शाह राजनीति के धुरंधर खिलाड़ी है। 

 

उन्होंने अपनी राजनीति चालों से कांग्रेस मुक्त देश के नारे को सफलता दी है, जिन राज्यों में कांग्रेस की गहरी जड़े थी, उन्हें भी उखाड़ फेंका है, तो गुजरात पर अपनी पकड़ को वो कैसी ढ़िली पडने देंगे? बीजेपी ने इसकी जवाबी रणनीति पहले ही तैयार कर ली थी। जिस दिन गुजरात कांग्रेस के अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी ने हार्दिक पटेल को चुनाव लड़ने का निमंत्रण दिया, उसी दिन पाटीदार आरक्षण आंदोलन समिति यानी ‘पास’ के प्रवक्ता वरुण पटेल तथा प्रमुख महिला नेता रेशमा पटेल अपने 40 समर्थकों के साथ बीजेपी में शामिल हो गए। इसके बाद पूरे प्रदेश में हार्दिक पटेल के संगठन से लोगों को बीजेपी में शामिल करने का अभियान शुरू हो गया है। हार्दिक बीजेपी के खिलाफ प्रचार करेंगे तो ये लोग उनके खिलाफ बोलेंगे। जब से गुजरात के पूर्व-मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के प्रधानमंत्री पद की बागडोर संभाली है तब से वहां एक राजनीतिक शून्य-सा बना है। 

 

पहले आनंदीबेन पटेल और फिर विजय रुपाणी गुजरात में उस शून्य को भरने में सफल नहीं हुए। कुछ दिनों पूर्व साबरमती आश्रम से गांधीजी के जन्मस्थान पोरबंदर और ग्रामीण गुजरात की यात्रा में एक खास बात यह देखने को मिली कि अभी भी वहां के जनमानस में मोदी एक सशक्त और लोकप्रिय नेता के रूप में व्याप्त हैं। इसलिये मोदी का जादू तो इस बार भी चलना तो है ही। इस बात की झलक चुनाव के पूर्वानुमानों में सामने आ रही हैं। अभी तो भाजपा को ही स्पष्ट बहुमत मिलने के ही संकेत मिल रहे हैं। पिछले चुनाव में नरेंद्र मोदी का राजनीतिक संगठन कौशल और रणनीति बीजेपी के काम आई थी, पर इस बार वह राज्य की सियासत में मौजूद नहीं हैं। इसका कुछ असर पड़ सकता है, पर वह परिदृश्य से गायब भी नहीं हुए हैं। 

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह एक दिन का तूफानी गुजरात दौरा कर ताबड़तोड़ परियोजनाओं का उद्घाटन किया, उससे एक बार फिर जाहिर हुआ कि भाजपा में अपना गढ़ बचाने की बेचैनी बढ़ गई है। ऐसे में प्रधानमंत्री विभिन्न योजनाओं-परियोजनाओं-सेवाओं का उद्घाटन और विकास के सपने दिखा कर आम गुजरातियों का मन बदलने में शायद ही कामयाब हो पाएं। इसके लिए भाजपा को जमीनी स्तर पर उतर कर लोगों का भरोसा जीतना होगा, पर इसके लिए उसके पास समय अब बहुत कम है। अपनी गुजरात यात्राओं में वे सवाल उठा रहे हैं कि कांग्रेस ने सरदार पटेल और उनकी पुत्री के साथ कैसा व्यवहार किया? पटेलों को कांग्रेस के विरुद्ध खड़ा करने की इस रणनीति की क्या कांग्रेस के पास कोई काट है? जीएसटी में आवश्यक संशोधन कर व्यापारियों के असंतोष को कम करने का प्रयास किया गया है। स्वयं प्रधानमंत्री ने कहा है कि अभी जो कठिनाई है उसे कम किया जाएगा। साढे छह करोड़ गुजरातवासियों की भी अपनी किस्मत है, हम तो मंगल की ही कामना कर सकते हैं कि कोई भी आये, पर विकास आये, स्थायित्व आये, प्रामाणिकता आये, राष्ट्रीय चरित्र आये, मतदाता का जीवन कष्टमुक्त बने।

 

ललित गर्ग

9811051133 

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