‘पद्मावत’ पर पाबंदी रद्द करने का सुप्रीम कोर्ट का सही फैसला

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Jan, 2018 04:48 AM

supreme court decides to ban padmavat

मैं यह सोचकर हैरान हूं  कि भाजपा शासित 6 राज्यों की सरकारों द्वारा ‘पद्मावत’ फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के निर्णयों को सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह रद्द किया है, उसके मद्देनजर क्या भाजपा के व्यवहार में कोई नरमी आएगी? इन 6 राज्यों ने इस फिल्म पर मुकम्मल...

मैं यह सोचकर हैरान हूं  कि भाजपा शासित 6 राज्यों की सरकारों द्वारा ‘पद्मावत’ फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के निर्णयों को सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह रद्द किया है, उसके मद्देनजर क्या भाजपा के व्यवहार में कोई नरमी आएगी? इन 6 राज्यों ने इस फिल्म पर मुकम्मल प्रतिबंध की या तो घोषणा की थी या ऐसा प्रस्ताव रखा था। 

सुप्रीम कोर्ट की नजरों में यह असंवैधानिक था इसलिए उसने इन राज्यों को फिल्म प्रदर्शन की अनुमति देने का आदेश दिया है। शीर्षस्थ अदालत ने अन्य राज्य सरकारों को भी चेतावनी दी है कि वे इस प्रकार का प्रतिबंध लगाने की हिमाकत न करें। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश एक जबरदस्त चपत है और राजनीतिक परेशानी का कारण बन गया है। भाजपा सरकारों ने दलील दी थी कि इस फिल्म के प्रदर्शन से अमन-कानून की स्थिति इतनी बिगड़ जाएगी जिसे वे नियंत्रित नहीं कर पाएंगी। किसी प्रकार के तनाव और ङ्क्षहसा का जोखिम उठाने की बजाय उन्होंने फिल्म के प्रतिबंध का विकल्प चुना। यह दलील शीर्षस्थ अदालत को हजम नहीं हुई क्योंकि सत्ता तंत्र यदि कठोरता से अपना आदेश कार्यान्वित नहीं कर सकता तो इसके अस्तित्व का औचित्य ही क्या है? 

हमारे संविधान के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है और सत्ता तंत्र का यह कत्र्तव्य बनता है कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करे और अमन-कानून को मिल रही धमकियों से नागरिकों को बचाए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने तथा नागरिकों को संरक्षण देने में अपनी नाकामी का रोना रोते हुए भाजपा सरकारों ने अपनी मूलभूत जिम्मेदारी का ही परित्याग कर दिया। सच्चाई यह है कि यदि वे अपने कत्र्तव्य का वहन नहीं कर सकतीं तो उन्हें इस्तीफा देना चाहिए। फिल्म को प्रदर्शन की अनुमति तथा इसे संरक्षण उपलब्ध करवाने का आदेश जारी करके बेशक शीर्षस्थ अदालत ने भाजपा सरकारों को बर्खास्तगी की धमकी न दी हो तो भी इसने निश्चय ही यह जरूर स्मरण करवाया है कि वे अपने संवैधानिक दायित्वों का उल्लंघन कर रही हैं। 

भाजपा की ये सरकारें यह बात भूल गईं कि किसी चीज पर इसलिए प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता कि कुछ लोगों को यह अच्छी नहीं लगती। आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या रह जाता है यदि इसमें किसी को आहत करने की बात ही शामिल नहीं? वास्तव में ‘भावनाएं आहत होने’ का आदतन बहाना बनाकर हिंसा और बदमाशी पर उतरने वाले तत्वों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बचाव करना सरकारों का कत्र्तव्य है। सरकारों का चयन ही इसलिए किया जाता है कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों का झंडा ऊंचा उठाए रखें न कि किसी तरह के दबाव के आगे मिमियाने लगें या फिर घुटने टेक जाएं। 

खेद की बात है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि ‘पद्मावत’ की स्क्रीनिंग की स्थिति में कोई ङ्क्षहसा नहीं होगी। करणी सेना निश्चय ही दर्शकों और फिल्म वितरकों दोनों को ही भयभीत  करने पर आमादा है। वास्तव में इस बात की पूरी सम्भावना है कि कुछ या कई फिल्म वितरक शायद इस बात से भयभीत होकर इस फिल्म का प्रदर्शन न करने का खुद ही विकल्प चुन लें कि उनके सिनेमा हालों पर हमला होने की स्थिति में पता नहीं क्या हो जाए। ऐसे वातावरण में बहुत से दर्शक भी फिल्म से दूर रह सकते हैं। वास्तव में भाजपा ने अपने राजनीतिज्ञों की कायरता तथा करणी सेना की असंवैधानिक मांगों को न्यायोचित ठहराने की उनकी तत्परता द्वारा यह सुनिश्चित किया है कि ऐसी शक्तियां निश्चित होकर अपना काम करें। यदि प्रारम्भ में ही कड़ी प्रक्रिया व्यक्त की गई होती तो इन शक्तियों के कदम रुक सकते थे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 

अब मैं यह स्वीकार करता हूं कि भारत में व्यापक असंतोष या रोष प्रदर्शनों के समक्ष अमन-कानून बनाए रखना आसान काम नहीं होगा। मैं यह भी स्वीकार करता हूं कि कांग्रेस सरकारें भी हमारी स्वतंत्रताओं की कोई बहुत बढिय़ा पक्षधर नहीं थीं और शायद कभी-कभार ही उन्होंने यह प्रमाण दिया हो कि उन्हें नागरिक स्वतंत्रताओं की चिंता है। आखिरकार क्या सलमान रशदी की ‘शैतान की आयतों’ के भारत में प्रविष्ट होने से पहले ही हमारे ‘महान’ प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने प्रतिबंध नहीं लगा दिया था? और कैप्टन अमरेन्द्र सिंह की ‘पद्मावत’ के संबंध में प्रारम्भिक प्रक्रिया निश्चय ही क्या भाजपा के स्टैंड की याद नहीं दिलाती। लेकिन ये सारी बातें एक बड़ी समस्या की ओर ही इंगित करती हैं। यानी कि हमारे राजनीतिज्ञ दरपेश चुनौतियों से अधिक डरते हैं और उन स्वतंत्रताओं और अधिकारों के प्रति कम प्रतिबद्ध हैं जिनकी रक्षा के लिए उन्हें वोट दिया जाता है। 

ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के लिए भगवान का धन्यवाद किया जाना चाहिए। अपने सभी अंतर्विरोधों तथा खामियों के बावजूद इस मामले में इसने लोकतंत्र के सबसे अधिक मौलिक अधिकार यानी-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का झंडा बुलंद रखा है। खेद की बात है कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा सरकारों की सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के संबंध में प्रारम्भिक प्रतिक्रियाएं कोई हौसला बढ़ाने वाली नहीं हैं। जहां राजस्थान सरकार ने कहा है कि यह सुप्रीम कोर्ट के फैसले की समीक्षा की मांग करेगी, वहीं मध्य प्रदेश सरकार ने तो खुद सुप्रीम कोर्ट पर ही सवाल उठाया है। हम चाहते हैं कि अवज्ञा की इन कोंपलों को प्रफुल्लित होने से पहले ही मसल देने के लिए सुप्रीम कोर्ट को दमखम दिखाना चाहिए और यह काम शीघ्रातिशीघ्र होना चाहिए।-करण थापर

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