जिसने मन को जीत लिया, उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र

Edited By Punjab Kesari,Updated: 17 Jan, 2018 06:13 PM

yoga without subdueing the mind is only wastage of time

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार: स्वामी प्रभुपाद  अध्याय छह ध्यानयोग बन्धुरात्मात्मनस्त्स्य येनात्मैवात्मना जित:। अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।६।।

श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप
व्याख्याकार: स्वामी प्रभुपाद 
अध्याय छह ध्यानयोग


बन्धुरात्मात्मनस्त्स्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्।।६।।


शब्दार्थ: बन्धु:—मित्र; आत्मा—मन; आत्मन:—जीव का; तस्य—उसका; येन—जिससे; आत्मा—मन; एव—निश्चय ही; आत्मना—जीवात्मा के द्वारा; जित:—विजित; अनात्मन:—जो मन को वश में नहीं कर पाया उसका; तु—लेकिन; शत्रुत्वे—शत्रुता के कारण; वर्तेत—बना रहता है; आत्मा एव—वही मन; शत्रुवत्—शत्रु की भांति।


अनुवाद: जिसने मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।


तात्पर्य- अष्टांगयोग के अभ्यास का प्रयोजन मन को वश में करना है, जिससे मानवीय लक्ष्य प्राप्त करने में वह मित्र बना रहे। मन को वश में किए बिना योगाभ्यास करना मात्र समय को नष्ट करना है। जो अपने मन को वश में नहीं कर सकता वह सतत् अपने परम शत्रु के साथ निवास करता है और इस तरह उसका जीवन तथा लक्ष्य दोनों ही नष्ट हो जाते हैं। जीव का स्वरूप यह है कि वह अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करे। अत: जब तक न अविजित शत्रु बना रहता है, तब तक मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि की आज्ञाओं का पालन करना होता है, परंतु जब मन पर विजय प्राप्त हो जाती है तो मनुष्य इच्छानुसार उस भगवान की आज्ञा का पालन करता है जो सबके हृदय में परमात्मास्वरूप स्थित है। वास्तविक योगाभ्यास हृदय के भीतर परमात्मा से भेंट करना तथा उनकी आज्ञा का पालन करना है, जो व्यक्ति साक्षात कृष्णाभावनामृत स्वीकार करता है, वह भगवान की आज्ञा के प्रति स्वत: समर्पित हो जाता है।     

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