Edited By ,Updated: 12 Sep, 2016 01:54 PM
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 5 (कर्मयोग)
इच्छाएं और क्रोध
श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार : स्वामी प्रभुपाद
अध्याय 5 (कर्मयोग)
इच्छाएं और क्रोध
शक्रोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर:।। 23।।
शक्नोति—समर्थ है; इह एव—इी शरीर में; य:—जो; सोढुम्—सहन करने के लिए; प्राक्—पूर्व; शरीर—शरीर; विमोक्षणात्—त्याग करने से; काम—इच्छा; क्रोध—तथा क्रोध से; उद्भवम्—उत्पन्न; वेगम्—वेग को; स:—वह; युक्त:—समाधि में; स:—वही; सुखी—सुखी; नर—मनुष्य।
अनुवाद : यदि इस शरीर को त्यागने से पूर्व कोई मनुष्य इन्द्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह सकता है।
तात्पर्य : यदि कोई आत्म-साक्षात्कार के पथ पर अग्रसर होना चाहता है तो उसे भौतिक इन्द्रियों के वेग को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। ये वेग हैं- वाणीवेग, क्रोधवेग, मनोवेग, उदरवेग, उपस्थवेग तथा जिह्वावेग। जो व्यक्ति इन विभिन्न इन्द्रियों के वेगों को तथा मन को वश में करने में समर्थ है वह गोस्वामी या स्वामी कहलाता है। ऐसे गोस्वामी नितांत संयमित जीवन बिताते हैं और इंद्रियों के वेगों का तिरस्कार करते हैं।
भौतिक इच्छाएं पूर्ण न होने पर क्रोध उत्पन्न होता है और इस प्रकार मन, नेत्र तथा वक्षस्थल उत्तेजित होते हैं। अत: इस शरीर का परित्याग करने से पूर्व मनुष्य को इन्हें वश में करने का अभ्यास करना चाहिए। जो ऐसा कर सकता है वह स्वरूपसिद्ध माना जाता है और आत्म-साक्षात्कार की अवस्था में वह सुखी रहता है। योगी का कर्तव्य है कि वह इच्छा तथा क्रोध को वश में करने का भरसक प्रयत्न करे।
(क्रमश:)