स्वयं श्री कृष्ण के मुख से जानिए, कौन हैं उनके प्रिय भक्त

Edited By ,Updated: 20 Oct, 2016 03:00 PM

krishna devotees

बहुतेरे हैं भक्त इस जग में जो भगवान की भक्ति करते हैं लेकिन विषय है कि भगवान को कौन से भक्त प्रिय हैं और इसका उत्तर दे रहे हैं स्वयं श्री कृष्ण।

बहुतेरे हैं भक्त इस जग में जो भगवान की भक्ति करते हैं लेकिन विषय है कि भगवान को कौन से भक्त प्रिय हैं और इसका उत्तर दे रहे हैं स्वयं श्री कृष्ण। गीता के बारहवें अध्याय में कहा है, ‘‘मुझे प्राप्त करने के लिए सब कर्मों के फल का त्याग करने से तत्काल ही परम शांति प्राप्त होती है।’’

फिर आगे कहते हैं-
अद्वैष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एवं च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:ख सुख: क्षमी।। 13।।

इस प्रकार शांति को प्राप्त हुआ जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित एवं स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित, सुख-दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात अपराध करने वाले को भी अभय देता है।
संतुष्ट : सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय:।
मध्यॢपतमनोबुद्धियों मदभक्त: स मे प्रिय:।। 14।।

तथा जो ध्यान योग में युक्त हुआ निरंतर लाभ-हानि में संतुष्ट है तथा मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए मेरे में दृढ़ निश्चय वाला है वह मेरे में अर्पण किए हुए मन बुद्धि वाला मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
यस्मान्नाद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्ष भयोद्वेगैमुक्तो य: स च मे प्रिय:।। 15।।

तथा जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता है तथा जो हर्ष-अहर्ष दूसरे की उन्नति देखकर दुखी होना, भय और उद्वेग आदि से रहित है वह भक्त मुझे प्रिय है।
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदा सी नो गतव्यथ:।
सर्वारम्भत्यागी यो मदभक्त: स मे प्रिय: ।। 16।।

और जो पुरुष आकांक्षा से रहित तथा बाहर-भीतर से शुद्ध और चतुर है अर्थात जिस काम के लिए आया था उसको पूरा कर चुका है एवं पक्षपात से रहित और दुखों से छूटा हुआ है वह सर्व आरंभों का त्यागी अर्थात मन, वाणी और शरीर द्वारा प्रारब्ध से होने वाले सम्पूर्ण स्वाभाविक कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्यागी मेरा भक्त मुझे प्रिय है।
यो न दुष्यति न दृष्टि न शोचति न कांक्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय: ।। 17।।

और जो न कभी हर्षित होता है न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों के फल का त्यागी है वह भक्ति युक्त पुरुष मुझे प्रिय है।
सम: शत्रौ च मिंत्रे च तथा माना पमान यो:।
शीतोष्णसुख दु:सेषु सम: संगविवॢजत: ।। 18।।

और जो पुरुष शत्रु मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी-गर्मी और सुख-दुख आदि द्वंद्वों में सम है और सब संसार में आसक्ति से रहित है।
तुल्य निन्दास्तुति मौंनी संतुष्टों ये न केनचित।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्ति मान्मे प्रियो नर:।। 19।।

तथा जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला और मननशील है अर्थात ईश्वर के स्वरूप का निरंतर मनन करने वाला है एवं जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता से रहित है वह स्थिर बुद्धि वाला भक्तिमान पुरुष मुझे प्रिय है।
ये तु धम्र्यामृतमिदं यथोक्तं पर्मुपासते।
श्रद्धाना मत्परमा भक्त स्तेऽतीव में प्रिया:।। 20।।

और जो मेरे परायण हुए अर्थात मुझे परम आश्रय और परम गति और सबका आत्मरूप और सबसे परे परम पूज्य समझकर विशुद्ध प्रेम से मेरी प्राप्ति के लिए तत्पर हुए श्रद्धायुक्त पुरुष ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम भाव से सेवन करते हैं वे भक्त मुझे अतिशत प्रिय हैं। 

 

उक्त आठ श्लोकों को जीवन में उतार कर ईश्वर से निरंतर चिंतन करने का अभ्यास करते हुए ये सभी गुण प्राप्त करके सचमुच में ईश्वर का प्रिय भक्त बनना चाहिए। सिर्फ नाम-मात्र के लिए पूजा-अर्चना करने से सद्गुणों का विकास नहीं होता बल्कि निरंतर सत्संग सेवा सुमिरन से मनुष्य सचमुच का शाश्वत सुख प्राप्त कर सकता है। हर स्थिति में समभाव होना, निष्काम कर्म करना और ईश्वर को परम आश्रय मानकर निरंतर आत्मस्वरूप का चिंतन मनुष्यता के प्रमुख गुण हैं और भगवान को प्रिय भक्त के लक्षण हैं।
 

Related Story

Trending Topics

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!