Edited By ,Updated: 23 Apr, 2016 12:53 PM
श्रीमद् भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने मानवीय कर्तव्यों को धर्म के रूप में परिभाषित किया है। वेदों के तात्पर्य को महामुनि वेदव्यास जी ने सरल भाषा में ‘महाभारत’ में बताया जिसे पंचम वेद भी कहा जाता है, महाभारत से जो अमृत निकला, वह श्रीमद् भागवद्...
श्रीमद् भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण जी ने मानवीय कर्तव्यों को धर्म के रूप में परिभाषित किया है। वेदों के तात्पर्य को महामुनि वेदव्यास जी ने सरल भाषा में ‘महाभारत’ में बताया जिसे पंचम वेद भी कहा जाता है, महाभारत से जो अमृत निकला, वह श्रीमद् भागवद् गीता है जिसका प्राकट्य स्वयं भगवान विष्णु जी के मुखारविंद से हुआ है। आज सभी वेद, पुराण, उपनिषदादि ग्रंथ तथा समस्त तीर्थ भगवद्गीता जी में निवास करते हैं। भगवान इसके प्रत्युत्तर में कहते हैं कि ये दोनों अलग-अलग नहीं हैं।
‘‘ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङग त्यक्तवा करोति य:। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।’’
जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भांति पाप से लिप्त नहीं होता। वास्तव में धर्म पर चलने वाला धर्मात्मा पुरुष पाप एवं अधर्म के कार्य करने से डरता है।
भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, ' यं यं वापि स्मरण भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम। तं तमेवैति सदा तद्भावभावितः।।'
अर्थात: जीवनकाल में व्यक्ति के अंतर्मन में जो इच्छाएं और अभिलाषाएं रहती हैं वह मृत्यु के समय अधिक बलवान हो जाती हैं। मरते समय व्यक्ति जो इच्छा करता है उसका अगला जन्म वैसा ही होता है।
भविष्य को खुली आंखों से देखने के लिए पहले अपना आज संवारें। यदि आप अच्छे विचार रखते हुए धर्म के मार्ग पर चलते हैं तो आने वाला कल सुख की अनुभुति देगा। इसी जन्म में हरि नाम का आश्रय और परोपकार करके खास तैयारी करें जिससे अगले जन्म में बनेंगे अमीर।
जगदगुरु श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर अपनी उपदेशाली में लिखते हैं कि ," केवल एक व्यक्ति को भगवान के भजन में लगाना, लाखों व्यक्तियों को अन्न, वस्त्र तथा शिक्षा दान करने एवं संसार में करोड़ों अस्पताल दान करने की अपेक्षा अनंतगुणा महान परोपकार का कार्य होगा।"