1947 में राजौरी को आजाद करवाने वालो की आत्मा शांति ले लिए किया गया हवन

Edited By Punjab Kesari,Updated: 13 Nov, 2017 02:08 PM

1947 a tale of rajouri freedom

13 अप्रैल 1948 को राजौरी को पाक के कबायली दुश्मनों से मुक्ति मिली थी। यह मुक्ति संघर्ष, कुर्बानी और बलिदान के बाद मिली। राजोरी शहर में पांच महीने में हजारों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, राजौरी की धरती खून से लथपथ हुई तब कहीं यहां के लोगों को...

जम्मू: 13 अप्रैल 1948 को राजौरी को पाक के कबायली दुश्मनों से मुक्ति मिली थी। यह मुक्ति संघर्ष, कुर्बानी और बलिदान के बाद मिली। राजोरी शहर में पांच महीने में हजारों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी, राजौरी की धरती खून से लथपथ हुई तब कहीं यहां के लोगों को दुश्मनों से निजात मिली और राजोरी आजाद हुआ। आप को बता दें कि 11 नवंबर 1947 को राजोरी के लोग दीपावली मनाने की तैयारी कर रहे थे इसी बीच पाकिस्तान के कबायलियों ने आक्रमण करके राजोरी पर कब्जा कर लिया। यह दिवाली आजादी की पहली दिवाली थी। बीस हजार से भी अधिक पुरुष, महिलाओं और बच्चों ने 11 नवंबर 1947 से 13 अप्रैल 1948 तक पाक कबायलियों के साथ लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी।


जनरल जोरावर सिंह ने संभाली थी कमान
 राजोरी को पाक कबायलियों से मुक्त कराने की जिम्मेदारी सेंटरल इंडियन फोर्स के कमांडेंट लेफ्टिनेंट जनरल जोरावर सिंह को सौंपी गई। वह स्टार्ट एमके 6 लाइट टैंक से सुसज्जित थे, वह पहले नोशेरा ब्रिगेड में शामिल हुए । राजोरी नोशेरा ब्रीगेड हेडक्वार्टर से 28 मील की दूरी पर था और सेना को बदहाल सडक़ से गुजरना था। इस पर पाक कबायलियों ने बारूदी सुरंगें बिछाई हुई थीं। लेफ्टिनेंट कर्नल जोरावर सिंह ने पहले वरिष्ठ इंजीनियर अधिकारे के साथ क्षेत्र के ऊपर उडऩ भरी। 7 और 8 अप्रैल की रात को 19 ब्रिगेड ने नंदपूर और बारवाली पहाडिय़ों पर कब्जा किया, ताकि सडक़ को साफ कर टेकों को राजोरी पहुंचाया जाए। इसके बाद जोरावर अपनी सेना के साथ नोशेरा से आगे बढ़े और नंदपूर के दक्षिण में स्थिति संभाली। वहीं उसी दिन 4 डोगरा ने भी नंदपूर के पश्चिम में स्थिति संभाली,ताकि रास्ते को साफ कर राजोरी पहुंचा जाए। 4 डोगरा ने अपने कई जवानों की कुर्बानी देने के बाद दुश्मन को पीछे धकेल दिया। 8 अप्रैल की सुबह को दुश्मन ने जवाबी हमला किया और 4 डोगरा को घेरने की कोशिश की। उसी समय जोरावर सिंह ने दुश्मनों के कई जवानों को मौत के घाट उतार कर उन्हें वापस खदेड़ दिया। इस तरह राजोरी आपरेशन के पहले चरण को सफलता हासिल हुई।


दूसरे चरण में किया सडक़ को साफ
 दूसरे चरण में 10 अप्रैल की सुबह को जोरावर ने अपने सैनिकों और इंजीनियरों की मदद से सडक़ को साफ कर उसे हल्के वाहनों के चलने योग्य बनाया। राजोरी की तरफ तेज गति से बढऩे के लिए आरएचक्यू के दो टैंक, बी कंपनी तथा पहली कुमाऊं रायफल की टास्क फोर्स बनाई गई। जिसको मेजर विष्ट कमांड कर रहे थे। पैदल सेना भी जोरावर सिंह के साथ थी। जिन्होंने दुश्मन की भारी गोला बारी के बावजूद चिंगस की ओर कूच किया। इनको रायल इंडियन एयर फोर्स ने भी सहायता की। 14 मील का सफर छह घंटों में तय किया। इन टुकडिय़ों को आठ बार दरिया भी पार करना पड़ा, भारतीय सेना के जवान शाम को साढ़े पांच बजे राजोरी शहर के आसपास पहुंच गए और नगर को घेर लिया। अपनी योजना के तहत भारतीय सेना ने 13 अप्रैल 1948 को सुबह दस बजे राजोरी और इसके नागरिकों को दुश्मनों के चुंगल से आजाद करवा लिया। यह लेफ्टिनेंट जनरल जोरावर सिंह की एक बेमिसाल कमान की वजह से ही संभव हो सका जिन्होंने टैंकों को रास्ते के बजाय दरिया और नालों से गुजार कर राजोरी को आजाद करवाया।। यह टैंक आज भी ऐस आफ स्पेड्स डिवीजन के संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहे हैं।

 

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