दुनिया पर फिर मंडराई ‘मंदी की परछाईं’

Edited By ,Updated: 28 Aug, 2015 12:24 AM

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चीन के औद्योगिक उत्पादन की धीमी पड़ती रफ्तार से दुनिया पर एक बार फिर मंदी की छाया मंडरा रही है।

(निरंकार सिंह): चीन के औद्योगिक उत्पादन की धीमी पड़ती रफ्तार से दुनिया पर एक बार फिर मंदी की छाया मंडरा रही है। खुद को संभालने के चक्कर में चीन आने वाले दिनों में अपनी ब्याज दरें और घटाएगा तथा अपनी मुद्रा की कीमत और ज्यादा नीचे लाएगा। अब अगर अमरीका भी अपनी ब्याज दरें बढ़ाता है तो हालात और बिगड़ सकते हैं। यह संकट वैश्विक अर्थव्यवस्था की धुरी माने जाने वाले चीन से उपजा है जिसका असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा। पैंशन फंड को स्टॉक मार्कीट में लगाने के बावजूद चीन का शेयर बाजार संभल नहीं रहा है। उम्मीद की जा रही है कि वह अपने उद्योग-धंधों को बचाने के लिए एक बार फिर युआन का अवमूल्यन कर सकता है। 

देश के वित्त मंत्री अरुण जेतली ने स्वीकार किया है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था एक चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रही है। अमरीकी केन्द्रीय बैंक फैडरल रिजर्व की ओर से ब्याज दरों में अनिश्चितता बनी हुई है। अमरीका बड़ी अर्थव्यवस्था है, वहां जो कुछ भी होता है उसका पूरी दुनिया पर असर होता है। इसी तरह चीन भी वैश्विक अर्थव्यवस्था है। अगर उसके मैन्युफैक्चरिंग (निर्माण) क्षेत्र के आंकड़े विपरीत संकेत देते हैं तो इसका प्रभाव पड़ता है। यह दौर स्थायी नहीं है। ऐसे में यदि किसी अर्थव्यवस्था का आधार मजबूत है तो ऐसे दौर का सामना करना बहुत बड़ी चुनौती नहीं है।
 
पिछले कुछ वर्षों के दौरान देशी इस्पात उद्योग का प्रदर्शन सुस्त रहा है, इसके कारण बैंकों के फंसे कर्ज बढ़ गए हैं। बैंकों के फंसे कर्ज में इस्पात उद्योग का योगदान सबसे अधिक है। इस साल मार्च 2015 के अन्त में बैंकों का फंसा कर्ज बढ़कर 2.67 लाख करोड़ हो गया है। चीन की मुद्रा के अवमूल्यन से इस्पात, एल्युमीनियम, टायर और रसायनों की भारत में भारी आयात की संभावना बढ़ गई है। इसका सीधा असर हमारे इस्पात उद्योग पर पड़ेगा। चीन का इस्पात हमारे यहां के इस्पात से सस्ता है। इसलिए हमारे यहां की निर्माण क्षेत्र की कम्पनियां उसका चीन से आयात करती हैं। वित्त मंत्री अरुण जेतली के अनुसार घरेलू इस्पात उद्योगों को विभिन्न कारकों पर विचार कर प्रतिस्पर्धी बनाना होगा। 
 
इसके लिए हमें अपनी खनन क्षमता बढ़ानी होगी ताकि बाजार में कच्चे माल का दाम कम हो जाए। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने इस बात की आशंका पहले ही प्रकट की थी कि दुनिया फिर से 1930 जैसी महामंदी की चपेट में आ सकती है। यह समस्या कुछ देशों की नहीं बल्कि पूरे विश्व की है। इससे बचने के लिए दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों को नए नियम बनाने  होंगे। राजन का यह बयान इसलिए भी अहम है, क्योंकि  उन्होंने 2008 के ग्लोबल वित्तीय संकट के बारे में भी पहले ही आगाह कर दिया था। राजन के अनुसार वह कोई अंदाजा नहीं लगाना चाहते कि ये नए नियम हम कैसे तय करेंगे। इस पर विस्तृत शोध और पहल के बाद आने वाले समय में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा करने और सहमति बनाने की जरूरत है। लेकिन उन्हें यह चिंता जरूर है कि हम धीरे-धीरे उन्हीं हालात की ओर बढ़ रहे हैं, जोकि 1930 के दशक में थे। यह सिर्फ  औद्योगिक देशों या उभरते बाजारों की ही नहीं, पूरे विश्व की समस्या है। अब इसका दायरा कहीं ज्यादा बड़ा है।
 
मालूम हो कि 1930 की महामंदी की मार से दुनिया का कोई देश बच नहीं पाया था। अमरीका में 29 अक्तूबर, 1929 को शेयर बाजार के धराशायी होने के बाद इसकी शुरूआत हुई थी। इस मंदी के पहले चार साल में विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में 15 फीसदी की गिरावट आई थी। पूरे दशक तक चलती रही इस मंदी से बड़े पैमाने पर लोग बेरोजगार हो गए थे। बहरहाल अब इस संबंध में ग्लोबल नियमों पर बहस शुरू करने का समय आ गया है। 
 
सवाल यह है कि हम ऐसे दायरे में प्रवेश कर रहे हैं जहां हम बिना किसी आधार के वृद्धि पैदा कर रहे हैं। विकास दर के सृजन की बजाय एक जगह से दूसरी जगह वृद्धि को खिसका रहे हैं। महामंदी के दौर में इसका इतिहास रहा है, जब हम प्रतिस्पर्धी अवमूल्यन कर रहे थे। फिलहाल दुनिया भर के केंद्रीय बैंक अपने देशों की स्थिति को देखते हुए ब्याज दरों की कटौती करते हैं। देश अपनी मुद्रा को भी कमजोर करते हैं ताकि उनको निर्यात का फायदा मिल सके। 
 
जब कोई देश अपनी मुद्रा की कीमत घटाता यानी अवमूल्यन करता है तो इससे एक्सपोर्ट बढ़ता है और इम्पोर्ट महंगा हो जाता है। इस कारण लोग देश में बनी चीजें ही उपयोग करते हैं। 1930 की महामंदी में अमरीका, फ्रांस, इटली, जापान और आस्ट्रेलिया समेत 9 देशों ने अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया था। इन देशों ने अपनी मुद्रा की कीमत 40 फीसदी तक घटा दी थी। 
 
विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन का आॢथक संकट ग्रीस के संकट से अधिक भयावह हो सकता है। चीन में हालात वैसे ही बनते जा रहे हैं जो अमरीका में 1929 में शेयर बाजार डूबने से पैदा हुए थे। यह अब तक का सबसे बड़ा आॢथक महासंकट था। महज कुछ हफ्तों में ब्राजील की अर्थव्यवस्था जितनी रकम करीब 3 खरब डॉलर चीनी शेयर बाजारों से साफ  हो गई है। चीनी सरकार की अर्थव्यवस्था को संभालने की लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें अब तक विफलता ही हाथ लगी है। मध्य जून से अब तक चीन के शेयर बाजार में 30 प्वाइंट की गिरावट मोटे तौर पर पिछले साल ब्रिटेन में हुए कुल आॢथक लाभ के बराबर है।
 
चीन की करीब एक-तिहाई कंपनियों यानी 940 से अधिक कंपनियों ने चीन के मुख्य 2 स्टाक एक्सचेंजों शंघाई और शेनझेन ने  ट्रेडिग स्थगित कर दी है। चीन के शेयर बाजार की ऐतिहासिक अस्थिरता वैश्विक मंदी का ही संकेत है पर चीन की अर्थव्यवस्था की सुस्ती कई मायनों में भारत के लिए वरदान भी साबित हो सकती है। जैसे कि कीमतों में कमी आने से उपभोक्ताओं, उद्योगों और सरकार को लाभ होगा। 
 
इस वैश्विक महामंदी के संदर्भ में जहां तक भारत का सवाल है तो उसकी अर्थव्यवस्था फिलहाल ठीक-ठाक  चल रही है। इसकी संभावनाएं भी काफी अच्छी हैं लेकिन सरकारी बैंकों में फंसे कर्जे (एन.पी.ए.) की स्थिति जिस तरह बिगड़ रही है उससे सारी संभावनाओं पर पानी फिर सकता है। सरकारी डाटा के मुताबिक सरकारी बैंकों ने जितना कर्ज 31 मार्च 2015 तक दिया है उसका 13.24 फीसदी हिस्सा एन.पी.ए. में तबदील हो सकता है। 
 
हालांकि इन कदमों से औद्योगिक निर्यात में कोई खास वृद्धि नहीं हुई। पिछले 6 माह से इसमें गिरावट हो रही है। अगर निर्यात का घटना जारी रहा तो इससे चालू खाते के घाटे (सी.ए.डी.) पर दबाव बढ़ेगा। यह कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार सकता है। इसलिए सरकार को अभी से आवश्यक कदम उठाने होंगे ताकि देश को मंदी से बचाया जा सके।  
 
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