Edited By Punjab Kesari,Updated: 14 Oct, 2017 02:29 PM
भारत के सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल वह शख्सियत हैं जिन्हें कोई भारतवासी कभी नहीं भुला सकता है। खेत्रपाल की वीरता के किस्से सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में सुनाए जाते हैं। इसका सबूत है पाकिस्तान की आधिकारिक रक्षा...
नई दिल्ली: भारत के सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल वह शख्सियत हैं जिन्हें कोई भारतवासी कभी नहीं भुला सकता है। खेत्रपाल की वीरता के किस्से सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में सुनाए जाते हैं। इसका सबूत है पाकिस्तान की आधिकारिक रक्षा वेबसाइट, जहां पूर्व ब्रिगेडियर ने अरुण क्षेत्रपाल की वीरता को सलाम करते हुए एक ब्लॉग लिखा है इसमें उन्होंने जंग के दौरान अरुण की ओर से किए गए साहसिक प्रदर्शन का जिक्र किया है। पढ़िए भारत माता के सपूत खेत्रपाल की वीरता के किस्से:
एक बेहतर सोल्जर की तरह डटे रहे अरुण
अरुण खेत्रपाल का जन्म 14 अक्टूबर 1950 को पूना में हुआ था। उन्होंने अपने परिवार में ही फौजी जीवन बहुत करीब से देखा और महसूस किया था। उन्होंने सबसे पहले एनडीए में स्क्वेड्रन कैडेट के रूप में ज्वाइनिंग की थी। इसके बाद देहरादून में इंडियन मिलिट्री अकादमी में उन्हें सीनियर अण्डर ऑफिसर के पद पर तैनाती मिली। 13 जून, 1971 को अरुण को पूना हॉर्स में बतौर सेकेंड लेफ्टिनेंट तैनात किया गया। वह हमेशा एक बेहतर सोल्जर की तरह डटे रहते थे।
पाक के 4 टैंक किए तबाह
अरुण की ज्वाइनिंग के 6 महीन के अंदर ही दिसंबर 1971 में भारत-पाक युद्ध शुरू हुआ। इस दौरान अरुण आखिरी सांस तक दुश्मन के टैंकों में घिरने के बावजूद लड़ते रहे। उन्होंने अपने टैंक से पाक के 4 टैंक तबाह कर दिए। रेडियो सेट पर उनके वरिष्ठ अधिकारी ‘अरुण वापस लौटो’ का आदेश दे रहे थे लेकिन वह अभी युद्ध में टिकना चाहते थे और पांचवें पाकिस्तानी टैंक को अपना निशाना बनाना चाहते थे। 4 टैंकों को तबाह करने के बाद उनके टैंक में भी आग लग चुकी थी लेकिन गन अभी काम कर रही थी।
21 साल की उम्र में हो गए थे शहीद
अरुण ने रेडियो सेट यह कहकर बंद कर दिया कि अभी मेरी गन काम कर रही है... इसी बीच एक गोला आकर टैंक के ऊपरी हिस्से को भेदता हुआ, अरुण से जा टकराया। जब वह कुछ समझ पाते तब तक बहुत देर हो चुकी थी। तमाम कोशिशों के बावजूद गनर उनको टैंक से बाहर नहीं ला पाया और 16 दिसंबर, 1971 के दिन 10 बजकर 15 मिनट पर अरुण ने आखिरी सांस ली। जब लड़ते हुए वो शहीद हुए तो उनकी उम्र महज 21 साल थी। पराक्रम और अदम्य साहस के लिए उन्हें परमवीर चक्र से नवाजा गया।
पूरे देश को अरुण पर गर्व
पाक के टैंक फमगुस्ता ने उनका शव अपने कब्जे में ले लिया। हालांकि बाद में भारतीय सेना की मांग पर पाक ने उनका शव लौटा दिया था। अरुण के परिजनों को उनकी शहादत के बारे में तब पता चला जब उनकी अस्िथयां घर पहुंची। इस दौरान पूरे देश को अरुण पर गर्व हुआ। इस युद्ध में पाकिस्तान को भारत के हाथों को मुंह की खानी पड़ी और बांग्लादेश एक स्वतंत्र देश बना। अरुण के परदादा सिख आर्मी में अंग्रेजों के खिलाफ 1848 में हुए चलियांवाला के युद्ध में लड़े थे। उनके दादा पहले विश्व युद्ध में अंग्रेजों की सेना से लड़े थे। अरुण के पिता सेना की इंजीनियरिंग क्रॉप से जुड़े थे, जो ब्रिगेडियर के पद से रिटायर हुए थे।