त्रिमूर्ति को हाशिए पर रखने की रणनीति

Edited By Punjab Kesari,Updated: 07 Oct, 2017 11:31 AM

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अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा के खुलेआम विरोध और मोदी सरकार की नीतियों की निरंतर निंदा के बावजूद उन्हें पार्टी में बनाये रखने के पीछे की मंशा कहीं.......

अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा के खुलेआम विरोध और मोदी सरकार की नीतियों की निरंतर निंदा के बावजूद उन्हें पार्टी में बनाये रखने के पीछे की मंशा कहीं उन्हें राजनीतिक तौर पर हासिये पर ले जाने की तो नहीं है। अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा मोदी सरकार को कठघरे  में खड़ा करने का कोई मौका हाथ से छूटने नहीं देते और ऐसे में कई बार गाहे-बगाहे ऐसा लगता है की भाजपा की ऐसी कौन सी मजबूरी है जिसके चलते वो इन्हें ढोने को मजबूर हैं।

हाल ही में अरुण शौरी ने सरकार को आॢथक मुद्दों पर कटघरे में खड़ा किया था और नोटबंदी पर सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करते हुए नोटबंदी को सरकार की एक बड़ी मनी लॉन्ड्रिंग स्कीम बताई थी और उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि केंद्र में ढाई लोगों की सरकार है और यह सरकार विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती है। अरुण शौरी ने मोदी द्वारा गठित आॢथक सलाहकार परिषद के गठन पर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं।

जीएसटी मामले पर भी उनकी राय कांग्रेस जैसी है। अरुण शौरी ने कहा था की सरकार ने इसे लागू करने में जल्दबाजी दिखाई है, इंफोसिस को जीएसटी सॉफ्टवेयर का ट्रायल नहीं करने दिया गया, दरअसल जीएसटी के फार्म का स्वरूप काफी दिक्कतों भरा है और इसके डिजाइन में कई बड़ी खामियां हैं और यही कारण है की जीएसटी को लेकर सरकार को तीन महीने में 7 बार नियम बदलने पड़े हैं।

दूसरी तरफ  यशवंत सिन्हा के मामले में अरुण जेतली को यहां तक कहना पड़ा की उन्हें पी चिदंबरम के पीछे-पीछे नहीं चलना चाहिए। जयंत सिन्हा तक ने अपने पिता के लेख को सच्चाई से दूर बताया था। सही भी है, भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने चुनौतियों पर कई लेख लिखे जा चुके हैं पर दुर्भाग्यवश ये लेख कुछ सीमित तथ्यों से व्यापक निष्कर्षों को रेखांकित करते हैं, एक या दो तिमाही के नतीजों से अर्थव्यवस्था का आकलन करना ठीक तो नहीं है। अभी चल रहे संरचनात्मक सुधारों के लम्बे समय तक के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए एक या दो तिमाही के आंकड़े अपर्याप्त हैं और इस मामले में जल्दबाजी की आवश्यकता नहीं है। जीएसटी मुद्दे पर मोदी और जेतली की राय भी अब बदली है और ऐसी आशा की जानी चाहिए की इसमें कुछ और बदलाव बहुत जल्द होंगे।

जयंत सिन्हा के इस बात में दम तो है ही कि संरचनात्मक सुधार केवल वांछनीय नहीं है बल्कि इनकी जरूरत एक न्यू इंडिया के निर्माण और बेहतर नौकरियां उपलब्ध कराने के लिए है। नई अर्थव्यवस्था अधिक पारदर्शी, वैश्विक रूप से प्रतिस्पर्धी और इनोवेशन आधारित होगी तथा नई अर्थव्यवस्था और भी अधिक न्यायोचित होगी। जिससे सभी भारतीयों को बेहतर जीवन मिलेगा। 

वर्ष 2014 से मोदी सरकार द्वारा शुरू किए गए संरचनात्मक सुधारों से सुधारों का तीसरा चरण शुरू हुआ है और इससे पहले वर्ष 1991 में  पहला और दूसरा चरण 1999-2004 राजग सरकार में हुआ था। उधर शत्रुघ्न सिन्हा को जब भी सरकार के खिलाफ  कोई भी मौका मिलता है वो उसे छोड़ते नहीं हैं। उन्हें यह कहने की जरूरत क्या थी कि यशवंत सच्चे अर्थों में राजनेता हैं और उन्होंने सरकार को आईना दिखाया है। क्या यह भाजपा के अंदर रहकर भाजपा से बगावत नहीं है। शत्रुघ्न सिन्हा लगातार ट्वीट कर रहें हैं और यशवंत सिन्हा के मामले में भी कई ट्वीट कर सरकार पर कटाक्ष करते हुए शत्रुघ्न ने यशवंत सिन्हा की टिप्पणियों को लेकर लिखा कि हम सब जानते हैं कि किस तरह की ताकतें उनके पीछे पड़ी हैं। इसका क्या मतलब है। अमित शाह इस मामले में मौन क्यों हैं।

कई बार ऐसा लगता है की अनुशासन का दम्भ भरने वाली भाजपा इन तीनों नेताओं के मामले में निर्णय लेने से बच रही है, वैसे भी यशवंत सिन्हा अपनी लोकसभा की सीट जयंत सिन्हा को दे चुके हैं और अरुण शौरी के पास कोई लोकसभा क्षेत्र है नहीं, शत्रुघ्न सिन्हा को पटना लोकसभा सीट से फि र टिकट मिलेगी इसमें संदेह है, तो क्या भाजपा ने इन तीनो नेताओं पर साइन डाई वाली नीति तो नहीं अपना रही। यानी भाजपा कहीं इन्हे नजरअंदाज करने की रणनीति के तहत काम तो नहीं कर रही। विरोध करने वाले ये नेता अपने आप को अलग-थलग पाएंगे और थक हारकर या तो सक्रिय राजनीति से अलग हो जाएंगे या फि र किसी दूसरी नाव की तलाश कर वहां अपनी जमीन तैयार करने की जुगत में भीड़ जायेंगे। सच ही कहा है, राजनीति में न तो कोई हमेशा के लिए दोस्त होता है और न ही दुश्मन है। (राजीव मिश्र)

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