भगत सिंह भगवान में भरोसा नहीं करते, ये सुन नाराज हो गए थे बाबा रणधीर

Edited By Punjab Kesari,Updated: 23 Mar, 2018 09:11 AM

bhagat singh had said why am i atheist

शहीद भगत सिंह में भारत माता के लिए मर-मिटने का जज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा था। 23 साल की उम्र में ही वे फांसी के फंदे पर खुशी-खुशी झूल गए। जिस उम्र में आज के युवा इश्क में पड़ कर मां-बाप को भूल जाते हैं उस उम्र में मौत को गले लगाने वाला भगत सिंह...

नेशनल डेस्क: शहीद भगत सिंह अक्सर कहा करते थे-
            मेरे जज्बातों से इस कद्र वाकिफ है मेरी कलम
                 मैं इश्क भी लिखना चाहूं तो
                   इन्कलाब लिखा जाता है

शहीद भगत सिंह में भारत माता के लिए मर-मिटने का जज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा था। 23 साल की उम्र में ही वे फांसी के फंदे पर खुशी-खुशी झूल गए। जिस उम्र में आज के युवा इश्क में पड़ कर मां-बाप को भूल जाते हैं उस उम्र में मौत को गले लगाने वाला भगत सिंह विरला ही था। मोहब्बत उन्हें भी हुई और इतनी जुनून भरी थी कि फांसी को अपने गले का हार बना लिया। भगत सिंह को इश्क था भारत माता से और जुनून था अंग्रेजी बेड़ियों से उसे आजाद करवाने का। 28  सितंबर 1907 को जन्मे भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के सामने डट गए थे। 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्‍याकांड ने भगत सिंह पर गहरा असर डाला था। भगत भारत की आजादी के सपने सिर्फ देखते ही नहीं थे बल्कि उसे पूरा करने का पूरा दम भी रखते थे। 23 मार्च 1931 को उनके राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी दे दी गई थी।

मैं नास्तिक क्यों हूं
फौलादी इरादों और निर्भीकता के बल पर अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला देने वाले शहीद-ए-आजम भगत सिंह का मानना था कि विपदाओं का बहादुरी से सामना कोई भी व्यक्ति तभी कर सकता है जब उसके मन में किसी की सहायता लेने अथवा ईश्वर की कृपा पाने की हसरत न हो। वर्ष 1930-31 के बीच लाहौर सेंट्रल जेल की काल कोठरी में फांसी की सजा के मुक्कमल होने का इंतजार कर रहे भगत सिंह ने एक लेख के माध्यम से खुद के नास्तिक होने की वजह बताई। उनका यह लेख 27 सितंबर 1931 को लाहौर के अखबार 'द पीपल' में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में भगत सिंह ने ईश्वर की उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किए। सेंट्रल जेल में सजा काट रहे धार्मिक विचारों वाले स्वतन्त्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह को यह जान कर बहुत कष्ट हुआ कि भगत सिंह का ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वे किसी तरह भगत सिंह की कालकोठरी में पहुंचने में सफल हुए और उन्हें ईश्वर के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की कोशिश की। असफल होने पर बाबा ने नाराज होकर कहा कि प्रसिद्धि से तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है और तुम अहंकारी बन गए हो जो कि एक काले पर्दे के तरह तुम्हारे और ईश्वर के बीच खड़ी है जिसके जवाब में ही भगत सिंह ने यह लेख लिखा।
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शहीदे आजम ने लिखा कि एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी तथा सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हू। मेरे कुछ दोस्त इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ कारूरत से का्यादा आगे जा रहा हूं और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिये उकसाया है। मेरे दोस्तों के अनुसार, दिल्ली बम केस और लाहौर षडयंत्र केस के दौरान मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूं। भगत ने लिखा कि मैं यह समझने में पूरी तरह से असफल रहा हूं कि अनुचित गर्व या वृथाभिमान किस तरह किसी व्यक्ति के ईश्वर में विश्वास करने के रास्ते में रोड़ा बन सकता है। यह कैसे हो सकता है कि एक व्यक्ति, जो ईश्वर में विश्वास रखता हो, सहसा अपने व्यक्तिगत अहंकार के कारण उसमें विश्वास करना बंद कर दे। दो ही रास्ते संभव हैं। या तो मनुष्य अपने को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या वह स्वयं को ही ईश्वर मानना शुरू कर दे। इन दोनो ही अवस्थाओं में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता।

मैं भी करता था प्रार्थना
क्रांतिकारी के अनुसार मेरे बाबा, जिनके प्रभाव में मैं बड़ा हुआ, एक रूढि़वादी आर्य समाजी हैं। एक आर्य समाजी और कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैंने डीएवी स्कूल, लाहौर में प्रवेश लिया और पूरे एक साल उसके छात्रावास में रहा। वहां सुबह और शाम की प्रार्थना के अतिरिक्त में घंटों गायत्री मंत्र जपा करता था। उस समय तक मैं अपने लंबे बाल रखता था। यद्यपि मुझे कभी-भी सिख या अन्य धर्मों की पौराणिकता और सिद्धान्तों में विश्वास न हो सका था। मेरी ईश्वर के अस्तित्व में दृढ़ निष्ठा थी। बाद में मैं क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा। मेरा ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव क्रान्तिकारी दल में भी प्रस्फुटित नहीं हुआ था। अब अपने कन्धों पर जिम्मेदारी उठाने का समय आया था। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक निर्णायक बिन्दु था। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाए थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलंब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी।
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मैं ऐसे बना नास्तिक
मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ़्तार हुआ। रेलवे पुलिस हवालात में मुझे एक महीना काटना पड़ा। पुलिस अफ़सरों ने कहा कि यदि मैं क्रान्तिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालने वाला वक्तव्य दे दूं, तो मुझे अदालत में मुखबिर की तरह पेश किए बेगैर रिहा कर दिया जाएगा और इनाम दिया जाएगा। एक दिन सुबह सीआईडी के वरिष्ठ अधीक्षक न्यूमन ने कहा कि यदि मैंने वैसा वक्तव्य नहीं दिया, तो मुझ पर काकोरी केस से संबंधित विद्रोह छेड़ने के षडयंत्र तथा दशहरा उपद्रव में क्रूर हत्याओं के लिए मुकद्दमा चलाने पर बाध्य होंगे और कि उनके पास मुझे सजा दिलाने व फांसी पर लटकवाने के लिए उचित प्रमाण हैं। उसी दिन से कुछ पुलिस अफ़सरों ने मुझे नियम से दोनो समय ईश्वर की स्तुति करने के लिए फुसलाना शुरू किया पर अब मैं एक नास्तिक था।

शहीद ए आजम ने लिखा कि मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास तथा प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। अब मैं एक पक्का अविश्वासी था और तब से लगातार हूं। इस परीक्षण पर खरा उतरना आसान काम न था। ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है। यहां तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है। ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है। उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है।

भगत ने लिखा कि मैं जानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फंदा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा वह अंतिम क्षण होगा। मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जाएगी। आगे कुछ न रहेगा। एक छोटी-सी जूझती हुई जिदंगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी। बिना किसी स्वार्थ के यहां या यहां के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएं मिल जाएगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारंभ होगा।

वे शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को चुनौती देने के लिए उत्प्रेरित होंगे। इसलिए नहीं कि उन्हें राजा बनना है या कोई अन्य पुरस्कार प्राप्त करना है यहां या अगले जन्म में या मृत्योपरान्त स्वर्ग में। उन्हें तो मानवता की गर्दन से दासता का जुआ उतार फेंकने और मुक्ति एवं शान्ति स्थापित करने के लिए इस मार्ग को अपनाना होगा। मैं जानता हूं कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता। उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यन्त शुष्क बना दिया है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है लेकिन मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूं। मैं अन्त: प्रकृति पर विवेक की सहायता से विजय चाहता हूं।

भगत सिंह का कहना था कि यदि आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर है, जिसने विश्व की रचना की, तो कृपा करके मुझे यह बताएं कि उसने यह रचना क्यों की। कष्टों और संतापों से पूर्ण दुनिया असंख्य दुखों के शाश्वत अनन्त गठबन्धनों से ग्रसित। एक भी व्यक्ति तो पूरी तरह संतृष्ट नही है। कृपया यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बंधा है तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है। वह भी हमारी ही तरह नियमों का दास है।  अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिए कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं। वे हमको अपने प्रभुत्व में ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं, बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे।

यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध- एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचार पूर्ण शोषण- सफलतापूर्वक कर रहे हैं। मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियां उसे पटक सकती हैं। यही आज मेरी स्थिति है। यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त! यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा हे, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया। अत: मैं भी एक पुरुष की भांति फांसी के फंदे की अंतिम घड़ी तक सिर ऊंचा किए खड़ा रहना चाहता हूं।

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