Edited By ,Updated: 23 Jan, 2017 11:29 PM
दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि ‘‘न्याय अंधा नहीं होता और अदालतों की आंखों पर पट्टी नहीं बंधी
नई दिल्ली: दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा है कि ‘‘न्याय अंधा नहीं होता और अदालतों की आंखों पर पट्टी नहीं बंधी होती है। अदालत ने यह टिप्पणी एक व्यक्ति द्वारा अपनी 94 वर्षीय मां को उनके द्वारा बनाए गए मकान के कब्जे के लिए मुकदमे में उलझाकर उन्हें 16 साल तक अपने घर से बाहर रखने पर बेहद नाराजगी जाहिर करते हुए की ।
बेटे पर 5.3 लाख रपये का जुर्माना लगाते हुए न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने कहा कि उनके जैसे वादकार ‘‘यह धारणा पाले हुए हैं कि लंबे मुकदमे में उलझाकर वे न सिर्फ विधिसम्मत मालिक को अपने परिसर का उपयोग करने से वंचित करने में सक्ष्म होंगे बल्कि वह मुकदमा उन्हें लंबे समय तक कब्जा रखने में भी मदद करेगा।’’ अदालत ने बेटे हरीश रेलान को अपनी मां को चार सप्ताह के भीतर राशि का भुगतान करने का निर्देश देते हुए कहा, ‘‘यह सही समय है कि इस तरह के कुटिल प्रयासों पर रोक लगाई जाए ।’’
अदालत ने कहा कि कुछ वादकार ‘‘इस गलत धारणा में जीते हैं कि चूंकि न्याय की देवी की प्रतिमा की आंखों पर पट्टी बंधी होती है इसलिए न्याय प्रणाली गलत, तंग करने वाले और महत्वहीन दावों और बचावों पर आंखे मूंद लेती है।’’ अदालत ने स्पष्ट किया कि आंख पर पट्टी बंधे होने का मतलब है कि ‘निष्पक्षता और सूचित करता है कि न्याय बिना डर के या पक्षपात के, धन, संपत्ति, यश, शक्ति या पहचान के किया जाना चाहिए।’’ न्यायाधीश ने कहा, ‘‘अदालतें आरोप लगाने वाले या बचाव करने वाले की पृष्ठभूमि, संपर्कों, हैसियत, शक्ति या प्राधिकार से प्रभावित नहीं होती हैं ।’’