बुआ-भजीता मिलकर क्या दोहरा पाएंगे कांशी-मुलायम का दौर?

Edited By Anil dev,Updated: 12 Jan, 2019 01:30 PM

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बीजेपी के विजय रथ को 2019 में रोकने के लिए यूपी की लोकसभा सीटों पर समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव और बहुजन समाजवादी पार्टी की सुप्रीमो मायावती एक साथ 2019 का चुनाव लडऩे को तैयार हो गए हैं।

नई दिल्ली: बीजेपी के विजय रथ को 2019 में रोकने के लिए यूपी की लोकसभा सीटों पर समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव और बहुजन समाजवादी पार्टी की सुप्रीमो मायावती एक साथ 2019 का चुनाव लडऩे को तैयार हो गए हैं। इसके लिए दोनों ही पार्टियों के प्रमुख ने आज लखनऊ में प्रेस कांफ्रेस की और साथ लडऩे की बात को पुख्ता किया। दोनों ही पार्टियों के बीच सीटों का बंटवारा हो गया है। दोनों ही पार्टियां 38-38 सीटों पर लड़ेंगी। लेकिन सवाल ये है कि इसतरह का गठबंधन कितना कारगर होगा। इसे समझने के लिए हमें इतिहास की तरफ देखना होगा। 

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कांशी-मुलायम ने रोका था अयोध्या आंदोलन का रथ
1993 में भाजपा राम मंदिर के रथ पर सवार था ऐसे में सपा के मुलायम और बसपा के कांशीराम ने एक साथ आकर चुनाव लड़ा था। 1993 का उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव सपा और बसपा ने भाजपा के खिलाफ लड़ा था। उस समय उत्तर प्रदेश की 422 सीटों पर सपा बसपा ने 420 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। इसे चुनाव के नतीजों में जहां भाजपा ने सर्वाधिक 177 सीटों पर जीत हासिल की थी। वहीं सपा-बसपा ने संयुक्त रुप से 176 सीटों पर जीत दर्ज की थी। उस समय बसपा ने 164 प्रत्‍याशी उतारे जिसमें 67 प्रत्‍याशी जीते वहीं सपा ने अपने 256 प्रत्‍याशी उतारे थे जिसमें से 109 प्रत्‍याशियों ने जीत दर्ज की थी। इसके बाद सपा के पूर्व अध्यक्ष रहे मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया और 4 दिसंबर 1993 को सपा-बसपा गठबंधन की सरकार बनी। भले ही इसतरह की गठजोड़ से भाजपा को 1993 में नुकसान हुआ हो लेकिन तब और अब में काफी अंतर आ चुका है। आएये जानते हैं कि 1993 को दोहराने के पीछे की मंशा कितनी सफल हो सकती है। क्या एक बार फिर भाजपा को हराना आसान होगा?

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1993 विधानसभा चुनाव जैसा असर क्या लाएगा लोकसभा 2019 में भी असर?
1993 के चुनाव उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव थे जिसमें 420 सीटों पर चुनाव लड़ा गया था। इस बार ऐसा नहीं है, 2019 के चुनाव लोकसभा चुनाव हैं जोकि 80 सीटों पर लड़े जाने हैं। ऐसे में देखना है कि विधासभा चुनावों के मुकाबले लोकसभा चुनाव के मुद्दे और माहौल अलग होते हैं। इस हिसाब से बीजेपी को डैमेज करने के लिए क्या ये गठजोड़ काम आएगा। 25 साल पुरानी जीत को दोहराना क्या इतना आसान होगा?

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मंडल-कमंडल से काफी दूर आ चुकी हैं राजनीति
1993 में दौर अलग था वो समय मंडल और कमंडल का दौर था जिसमें जहां भाजपा सही दौर पर कमंडल पर वोट मांग रही थी तो मुलायम और कांशीराम ने एक साथ आकर सभी पिछड़ी जातियों को एक साथ लाकर खड़ा कर दिया था। उस समय में मुलायम सिंह ओबीसी और मुस्लिम वोटबैंक के बड़े नेता बनकर उभरे तो कांशीराम दलितों के बड़े नेता के तौर पर उभरे। लेकिन 2019 के चुनावों में कहानी कुछ और है, मंदिर का मुद्दा तो हैं लेकिन मोदी विकास की राजनीति और सका साथ और सबका विकास की बात करते हैं। ऐसे में दलितों और पिछड़ों को एक लेकर चुनाव लडऩे की रणनीति कितनी कारगर होगी कहना मुश्किल होगा?

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