क्या खत्म हो गई बीजेपी को शहरी मतदाताओं से मिलने वाले बोनस की गारंटी

Edited By Punjab Kesari,Updated: 16 Mar, 2018 07:38 PM

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एक समय था जब शहरी मतदाता बीजेपी के वोट बैंक की रीढ़ हुआ करता था। ग्रामीण इलाकों से उठी बीजेपी विरोधी लहर को शहरी मतदाता आसानी से बेअसर कर देते थे। शहरी मतदाताओं के समर्थन के चलते चुनावी मैदान में उतरने से पहले ही बीजेपी को पर्याप्त आत्मविश्वास मिल...

नेशनल डेस्क (आशीष पाण्डेय): एक समय था जब शहरी मतदाता बीजेपी के वोट बैंक की रीढ़ हुआ करता था। ग्रामीण इलाकों से उठी बीजेपी विरोधी लहर को शहरी मतदाता आसानी से बेअसर कर देते थे। शहरी मतदाताओं के समर्थन के चलते चुनावी मैदान में उतरने से पहले ही बीजेपी को पर्याप्त आत्मविश्वास मिल जाता था। शहरी इलाके में भारी बढ़त बनाकर बीजेपी उम्मीदवार चुनाव जीता करते थे, लेकिन अब उपचुनावों में मिली हार से बीजेपी का यह आत्मविश्वास डगमगाने लगा है। नए रुझानों से संकेत मिलता है कि अब बीजेपी को शहरी मतदाताओं से मिलने वाले बोनस की गारंटी खत्म हो गई है। ताजा उदाहरण गोरखपुर और फूलपुर के उपचुनावों में देखने को मिला। यहां पर शहरी विधानसभा क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में काफी कम रहा। फूलपुर सीट के शहरी इलाके इलाहाबाद उत्तर में जहां 21.65 प्रतिशत वोट पड़े, वहीं इलाहाबाद पश्चिम में 31 प्रतिशत। जबकि गोरखपुर शहर में 33 प्रतिशत मतदाताओं ने वोटिंग में रुचि दिखाई। अगर इसी तरह शहरी मतदाता बीजेपी से दूर होता जाएगा तो इसका खामियाजा बीजेपी को हार के रुप में उठाना पड़ेगा। इन नतीजों से यह तो स्पष्ट हो गया कि बीजेपी शहरी इलाकों में हुए नुकसान की भरपाई ग्रामीण इलाकों के वोटों के दम पर नहीं कर सकती है।

उपचुनाव है उदाहरण 
गोरखपुर, अजमेर और अलवर लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे जिस ओर इशारा कर रहे हैं वह बीजेपी के लिए काफी परेशानी का सबब बन सकता है। इन नतीजों से यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या शहरी मतदाताओं पर बीजेपी की पकड़ कमजोर हो गई है? क्या शहरी इलाकों में भगवा पार्टी की लोकप्रियता मंद पड़ने लगी है? एक समय शहरी मतदाता ही बीजेपी का आधार हुआ करता था लेकि वर्ष 2013 से बीजेपी का यह वोट लगातार उससे दूरी बनाना दिख रहा है। ग्रामीण इलाकों में सरकार के खिलाफ असंतोष पहले ही फैल चुका है अब शहरी मतदाताओं की उदासीनता ने बीजेपी के लिए खतरे की घंटी बजा दी है।
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शहरी मतदाताओं ने भी की दूरी 
गोरखपुर शहर में, बीजेपी को उम्मीद थी कि वह पिछले चुनाव की तरह ही इस बार भी एक लाख से ज्यादा वोटों की अजेय बढ़त बनाएगी। लिहाजा पार्टी ने शहरी मतदाताओं पर खास ध्यान दिया। उन्हें लुभाने के लिए अपने यूपी के कई मंत्रियों व अपने ज्यादातर संसाधनों की पूरी ताकत झोंक दी। बावजूद इसके बीजेपी की यह सभी कवायद बेकार साबित हुई और उसके उम्मीदवार को शिकस्त खाना पड़ी। इसी तरह अलवर और अजमेर में भी बीजेपी की उम्मीदों पर शहरी मतदाताओं ने पानी फेर दिया था। अलवर और अजमेर में इसी साल हुए उपचुनावों में बीजेपी की करारी हार हुई थी। अजमेर के दो शहरी हिस्सों और अलवर शहर में बीजेपी वोटों के बड़े अंतर से पीछे रही। जबकि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में इन दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में बीजेपी को शहरी मतदाताओं का भारी समर्थन मिला था।

गुजरात में शहरी मतदाताओं ने दिलाई जीत
साल 2017 के अंत में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में बीजेपी को जो जीत मिली उसका पुरा श्रेय शहरी मतदाताओं को जाता है। इससे यह तो साफ हो गया कि पार्टी केवल शहरी मतदाताओं के आधार पर ही चुनाव जीत सकती है। गुजरात की सूरत, अहमदाबाद, वडोदरा और राजकोट सीटों पर बीजेपी ने एकतरफा जीत हासिल की थी। राज्य की 55 शहरी सीटों में से 44 बीजेपी ने जीतीं। जबकि कांग्रेस ने 127 ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी सीटों में से 68 पर जीत हासिल की थी। बड़े शहरों में बीजेपी की अजेय बढ़त ने ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन को बेअसर कर दिया था।
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शहरों में क्यों पिछड़ रही है बीजेपी?
शहरी इलाकों में बीजेपी के घटते जनाधार और कम होती लोकप्रियता की कई वजहें हैं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण गांवों की तुलना में शहरी इलाकों में ज्यादा असर करता है। ग्रामीण इलाकों में दूसरे मुद्दों की अपेक्षा जाति सबसे निर्णायक कारक है। इसके अलावा बीजेपी के ज्यादातर मुख्य मतदाता यानी ऊंची जाति के लोग, युवा, व्यापारी-कारोबारी और सरकारी कर्मचारी शहरों में रहते हैं। अगर ऐसे में भी बीजेपी शहरों में पिछड़ रही है, तो जाहिर है कि मुख्य मतदाता पार्टी से नाखुश हैं। वे या तो बीजेपी के विरोधियों के पक्ष में मतदान कर रहे हैं या फिर मतदान के दिन वोट डालने ही नहीं जा रहे हैं। बीजेपी के प्रति उसके कट्टर समर्थक मतदाताओं की उदासीनता और नाराजगी के कई कारण हो सकते हैं। जीएसटी लागू होने के शुरुआती महीनों के दौरान शहरों में व्यापारियों और कारोबारियों का काम खासा प्रभावित हुआ था। जिससे उन्हें काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा।

ग्रामीणों में बढ़ता असंतोष
बीजेपी के लिए सबसे गंभीर समस्या यह है कि ग्रामीण इलाकों में पार्टी के खिलाफ असंतोष गहराता जा रहा है। ग्रामीण इलाकों में बीजेपी के खिलाफ यह असंतोष गुजरात में साफ नजर आया, जहां कांग्रेस ने इसका जमकर फायदा उठाया। मध्यप्रदेश और राजस्थान के उपचुनाव में यह प्रवृत्ति फिर से उजागर हुई थी, जहां सभी 14 विधानसभा क्षेत्रों के ग्रामीण इलाकों में बीजेपी बुरी तरह से पिछड़ गई थी। उपचुनाव के नतीजों के अलावा, महाराष्ट्र और राजस्थान के किसानों के हालिया प्रदर्शनों से पता चलता है कि केंद्र सरकार के खिलाफ लोगों में भारी नाराजगी है। उपचुनाव में हार के बाद बीजेपी को अब अपने शहरी मतदाताओं की चिंता करना चाहिए। बीजेपी को चाहिए कि वह यह सुनिश्चित करे कि उसके शहरी मतदाता उससे और छिटकें नहीं। बीजेपी को चाहिए कि वह अपने शहरी मतदाताओं को ग्रामीण इलाकों के मतदाताओं से प्रभावित होने से रोके। वरना शहरी और ग्रामीण मतदाताओं का यह विभाजन बीजेपी के मंसूबों पर बहुत भारी पड़ सकता है। शहरी मतदाताओं की नाराजगी और उदासीनता से बीजेपी के मिशन 2019 का सपना चकनाचूर हो सकता है।

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