‘जनसंख्या असंतुलन’ देश के लिए खतरनाक

Edited By ,Updated: 01 Feb, 2015 04:22 AM

article

साक्षी महाराज और उन जैसे अन्य लोगों के धनुष को कोई नई डोर उपलब्ध करवाने की कामना किए बिना यह अवश्य ही मान लेना चाहिए कि मजहब आधारित जनगणना से जो आंकड़े सामने आए हैं ...

(वीरेन्द्र कपूर) साक्षी महाराज और उन जैसे अन्य लोगों के धनुष को कोई नई डोर उपलब्ध करवाने की कामना किए बिना यह अवश्य ही मान लेना चाहिए कि मजहब आधारित जनगणना से जो आंकड़े सामने आए हैं उनको सार्वजनिक रूप में उचित ढंग से प्रचारित नहीं किया जा सका। मीडिया कई अन्य मुद्दों में उलझा रहा जोकि निश्चय ही अपनी जगह महत्वपूर्ण है। जहां तक राजनीतिक वर्ग का सवाल है वह संघ परिवार के कुछ बड़बोले तत्वों के भय से ‘बैकफुट’ पर जाने को मजबूर हो गया है। परिणाम यह हुआ कि मजहबी जनगणना का महत्व ही खो गया।

किसी भी प्रकार साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ावा देने की इच्छा न रखते हुए भी सच्चाई तो सच्चाई ही है और यह बतानी ही होगी। बेशक कुछ तत्व इसके हर प्रकार के गलत अर्थ लगा सकते हैं। यदि जनगणना के निष्कर्षों से सही सबक नहीं सीखे जाते तो इस पर सरकारी खजाने से खर्च होने वाली भारी धन राशि किस काम की? इसलिए हमारा इरादा केवल यह है कि मजहबी विभाजन रेखा के दोनों ओर साम्प्रदायिक उन्माद को भड़कने का मौका देने से बेहतर यही है कि समय रहते नीतिगत दुरुस्तियां करने के लिए सरकार को मजबूर किया जाए।

चूंकि राष्ट्रीय सुरक्षा अविछिन्न रूप में जनसांख्यिकी बदलावों के साथ जुड़ी होती है (खास तौर पर सीमावर्ती राज्यों में) इसलिए जनगणना एक समीचीन चेतावनी है। पेशेवर सैकुलरवादी बेशक जो मर्जी कहते हों, सच्चाई यह है कि पश्चिम बंगाल और असम जैसे सीमावर्ती राज्यों में मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर असाधारण रूप में ऊंची है जिसके चलते नीतिनिर्धारकों की आंखें खुलनी जरूरी हैं। इन राज्यों में (खास तौर पर असम में) मुस्लिम-केन्द्रित पार्टियों का उदय इस बात की चेतावनी है कि जनसांख्यिकी बदलाव परेशानी का कारण बन सकते हैं।

अभी तक तो हमारे शासक वर्ग बंगलादेशीयों की अवैध घुसपैठ की आलोचना की अनदेखी ही करते आए हैं। हाल ही के दशकों में शहरी केन्द्रों  में सस्ते घरेलू नौकरों और छोटे-मोटे काम करने वाले श्रमिकों के रूप में मुख्य तौर पर बंगलादेशीयों को काम पर रखने का रुझान पैदा हुआ है।

गरीबी के मारे बंगलादेशीयों का निरन्तर प्रवाह सीमा के दोनों ओर बहुत लाभदायक कारोबार का रूप धारण कर चुका है जिसमें बी.एस.एफ. की पूरी तरह मिलीभगत है।

बाद में राष्ट्रपति बनने वाले स्व. फखरुद्दीन अली अहमद जब 60 के दशक के मध्य में असम के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने इस अवैध प्रवाह को प्रोत्साहित किया। तब से अब तक यह निर्बाध रूप में जारी है।

हैरानी की बात है कि मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर सबसे अधिक भारत में है न कि खुद को मुस्लिम देश कहने वाले पाकिस्तान और बंगलादेश में। इस तथ्य का प्रमाण जनसंख्या के आंकड़ों से भली-भांति मिल जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय सम्पूर्ण भारत में मुश्किल से ही कोई मुस्लिम-बहुल जिला था। क्या मुस्लिमों ने ही आबादी के स्थानांतरण के सिद्धांत के आधार पर पाकिस्तान का सृजन नहीं किया था? आज भारत में  20 से भी अधिक मुस्लिम बहुल जिले हैं। इनमें से अधिकतर सीमावर्ती राज्यों में ही हैं।

वर्तमान में असम में मुस्लिम जनसंख्या 34.2 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 27 प्रतिशत है। इन आंकड़ों पर सैकुलरवादी बहुत लाल-पीले हो सकते हैं लेकिन यदि वे इस तथ्य का संज्ञान लें कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बंगलादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में 30 प्रतिशत हिन्दू आबादी थी जो अब घट कर लगभग 8 प्रतिशत रह गई है तो इस विषय में कोई सार्थक चर्चा चल सकती है। आज जिस क्षेत्र को हम पाकिस्तान कहते हैं उसमें स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हिन्दुओं की संख्या एक चौथाई थी जो अब केवल 1.5 प्रतिशत रह गई है।

भारतीय जनसंख्या के नवीनतम आंकड़े यह दिखाते हैं कि 2001-11 के बीच देश की सम्पूर्ण आबादी की वृद्धि दर 17 प्रतिशत रही जबकि मुस्लिम जनसंख्या 24 प्रतिशत की दर से बढ़ी। इसके विपरीत यह तथ्य कितना महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान में जनसंख्या की वृद्धि दर 20 प्रतिशत और बंगलादेश में केवल 14 प्रतिशत है।

भारत में मुस्लिम जनसंख्या की उच्च वृद्धि दर की व्याख्या कई अर्थों में की जा सकती है। एक व्याख्या यह हो सकती है कि यह वृद्धि सीमा पार से आने वाले अवैध घुसपैठियों के न केवल सीमांत जिलों बल्कि भारत के हर भाग में फैल जाने का नतीजा है। यदि ऐसा है तो यह भी केन्द्र की एक के बाद एक सरकारों के स्तर पर बहुत भारी नीतिगत विफलता की सूचक है।

दूसरी व्याख्या यह हो सकती है (जैसी कि व्यापक आशंका है, जो सर्वथा आधारहीन नहीं) कि वास्तविक मुस्लिम जनसंख्या सरकारी रिकार्डों में दिखाए गए आंकड़ों से कहीं अधिक है क्योंकि मुस्लिम आम तौर पर और बंगलादेशी खास तौर पर पकड़े जाने और बंगलादेश वापस भेजे जाने के डर से खुद को हिन्दू बिहारी अथवा हिन्दू बंगाली के रूप में पेश करते हैं। इन लोगों को वापस बंगलादेश भेजने का अल्पकालिक प्रयोग तब बुरी तरह असफल हुआ जब ढाका ने भारत में एक भी अवैध बंगलादेशी होने से सरासर इंकार कर दिया। भारत के इस कमजोर प्रयास का यह नतीजा हुआ कि देश में रह रहे लाखों अवैध बंगलादेशीयों ने किसी भी कीमत पर अपनी वास्तविकता छिपाए रखने का रास्ता अपना लिया।

तीसरी व्याख्या यह है कि मुस्लिम आम तौर पर परिवार नियोजन नहीं अपनाते। वास्तव में 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की शर्मनाक पराजय का कारण यही था कि संजय गांधी के कहने पर आपातकाल में जबरदस्ती नसबंदी कार्यक्रम चलाया गया था। वैसे मुस्लिम आबादी दर पश्चिमी देशों में भी अन्य समुदायों की तुलना में बहुत ऊंची है।

फिर भी राष्ट्रवादी मानसिकता वाले लोगों को जनगणना के इन आंकड़ों को आंध्र प्रदेश के अकबरुद्दीन ओवैसी, यू.पी. के आजम खान, असम के बदरुद्दीन अजमल की बढ़ती धौंस की प्रवृत्ति के परिदृश्य में देखना चाहिए और यह महसूस करना चाहिए कि इस मामले में अब देरी की गुंजाइश नहीं रह गई। मुस्लिम समुदाय को देश की मुख्य धारा के साथ एकजुट करने के लिए इसके सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन की समस्या हल करना जरूरी है क्योंकि धर्मांधता और गरीबी का चोली-दामन का रिश्ता होता है। इससे पहले कि जनसंख्या असंतुलन का यह टाइम बम फट जाए, मोदी को यह खतरा टालने का रास्ता अपनाना होगा।   

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!