जरूरत है अदालती समय बचाने की

Edited By ,Updated: 27 Feb, 2015 01:10 AM

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यदि मीडिया की सुर्खियों को देखा जाए तो ऐसा लगता है जैसे सारे पंजाब के प्रशासन को न्यायपालिका (अदालतें) ही चला रही हो। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट को राज्य के हर छोटे-बड़े प्रशासनिक फैसलों में ...

(निंदर घुगियाणवी) यदि मीडिया की सुर्खियों को देखा जाए तो ऐसा लगता है जैसे सारे पंजाब के प्रशासन को न्यायपालिका (अदालतें) ही चला रही हो। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट को राज्य के हर छोटे-बड़े प्रशासनिक फैसलों में दखल देना पड़ रहा है। कभी नियुक्तियां नियमानुसार नहीं हुई होतीं, तो कभी किसी को उसका बनता कोटा नहीं मिला होता। किसी की सीनियोरिटी खोई हुई है, किसी की पैंशन बंद है, कोई बोनस से वंचित है, किसी के साथ पुलिस ज्यादती कर रही है। एक नहीं, ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने हैं। अदालतों में रोज याचिकाएं दाखिल हो रही हैं। उच्च अदालतों की ओर से पंजाब पुलिस को रोज पड़ती फटकार की खबरें किसी से छिपीनहीं।

यदि राज्य के प्रशासनिक ढांचे में अदालतों ने ही सख्त हिदायतें करनी हैं और नियमों की पालना करने की नसीहतें देनी हैं तो हमारी अफसरशाही चंडीगढ़ के दोनों सचिवालयों तथा सारे पंजाब के जिलों में क्या कर रही है? मंत्रियों की जुंडलियां तथा चेयरमैनों की लंबी कतारें किधर मसरूफ हैं? इसी कारण न्यायपालिका को ऐसे कड़े दिशा-निर्देश देने पड़ रहे हैं। यदि राज्य का प्रबंध अदालतों ने चलाना है तो फिर करोड़ों रुपए खर्च कर चुनाव करवाने तथा सरकारें बनाने का अर्थ ही क्या रह जाता है?

इस समय कत्लो-गारत, झड़पों, दंगे-फंसाद, अपहरण, बलात्कार, नशे, आत्महत्याएं, ठगी, घपले, टैक्स चोरी, डाके, गैंगस्टर, भू-माफिया, कब्जे, कर्जे, राजनीतिक उठापटक, भयानक सड़क हादसे, ट्रैफिक समस्या आदि का चारों तरफ बोलबाला है और ऐसे केसों से संबंधित ढेर सारे उदाहरण हैं तथा अदालती कमरे तूड़ी के कमरे की तरह भरे पड़े हैं।

सिविल मामलों की बात इनसे अभी अलग है। सिविल केसों में अदालतों ने उनके प्रति लोगों की यह धारणा तोडऩी शुरू की है कि दीवानी मामले तो चार-चार पीढिय़ों तक चलते रहते हैं और न्याय आखिर तब मिलता है, जब घर के कई-कई सदस्य भगवान को प्यारे हो जाते हैं। ऐसे समय में हाईकोर्टों द्वारा लगाई जा रही लोक अदालतें व मैगा अदालतें काफी सहायक सिद्ध हो रही हैं। इन अदालतों में वर्षों से लटके पड़े हजारों केस निपटाए गए हैं।

हाईकोर्ट द्वारा हर महीने प्रत्येक जिला व सैशन जज से रिपोर्ट मांगी जाती है कि कितने समय में, कितने केसों का निपटारा हुआ है? बड़े उद्यमों के कर्मचारियों, मजदूरों, निचले कर्मचारियों व छोटे वर्करों से संबंधित केसों का निपटारा लेबर कोर्टों तथा किरत कमिश्ररों द्वारा अलग किया जाता है। जिला स्तरीय उपभोक्ता अदालतों का कार्य अभी अलगहै।

अलग-अलग अदालतों में पेशी भुगत रहे धार्मिक डेरों के प्रमुखों के विवाद में यदि न्यायपालिकादखल न देती तो जाने और क्या कुछ होता? विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं व कार्यकत्र्ताओं की पेशियों से संबंधित समाचार समाप्त होने का नाम नहीं लेते।

सम्मन तामील होने से लेकर आगे गवाहियों की प्रक्रिया बहुत समय खाती है। फौजदारी केसों में 2-2 साल तक गवाह ही पेश नहीं होते। पंजाब सरकार ने हाल ही में एक हैरानीजनक खुलासा पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में किया कि मुलाजिमों की कमी के कारण विभिन्न केसों की अधिकतर पेशियों में बड़ी संख्या में (721) हवालातियों को निचली अदालतों में पेश ही नहीं किया जासका। हैरानीजनक बात यह है कि एक कैदी को तो 32 पेशियों में से 20 बार पेश ही नहीं कियागया।  ऐसे आंकड़े व घटनाएं जब सार्वजनिक होती हैं तो व्यक्ति सोचने के लिए मजबूर हो जाता है कि यदि यही हाल रहा तो देश का क्या बनेगा?

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