जम्मू-कश्मीर की नई सरकार के समक्ष ‘भारी चुनौतियां’

Edited By ,Updated: 03 Mar, 2015 04:16 AM

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परस्पर विरोधी दृष्टिकोण रखने के बावजूद पी.डी.पी. और भाजपा की गठबंधन सरकार बन गई है। यह एक टेढ़ा काम था जिस पर सफलता प्राप्त करने में 2 माह से अधिक का समय लग गया।

(गोपाल सच्चर) परस्पर विरोधी दृष्टिकोण रखने के बावजूद पी.डी.पी. और भाजपा की गठबंधन सरकार बन गई है। यह एक टेढ़ा काम था जिस पर सफलता प्राप्त करने में 2 माह से अधिक का समय लग गया। जम्मू-कश्मीर राज्य का अस्तित्व ही कुछ ऐसा है जिसके विभिन्न भागों में रहने वालों की सोच में बड़ा अंतर है और फिर 12वीं विधानसभा चुनाव के परिणाम भी कुछ इस तरह के सामने आए  जिनको लेकर सरकार का गठन कोई सीधा काम नहीं था।

विधानसभा चुनाव में नैशनल कांफ्रैंस और कांग्रेस की पूर्व गठबंधन सरकार को मतदाताओं ने रद्द कर दिया। कश्मीर घाटी में पी.डी.पी. 28 सीटों के साथ सबसे बड़े संगठन के रूप में उभरी और जम्मू में भाजपा ने भारी बहुमत के साथ 25 सीटें प्राप्त कीं। इस तरह दोनों संगठनों ने 87 सदस्यीय विधानसभा में 55 सीटें तो प्राप्त कर लीं किन्तु दोनों के अपने अलग-अलग घोषणा-पत्र थे जो एक-दूसरे से दूर-दूर तक मेल नहीं खाते। कांग्रेस के साथ भाजपा की सरकार बन नहीं सकती और नैशनल  कांफ्रैंस तथा भाजपा का गठबंधन भी कई कारणों से संभव नहीं था। अगर होता भी तो भी दोनों संगठनों की सरकार नहीं बन पाती क्योंकि नैशनल कांफ्रैंस को 15 ही सीटें प्राप्त हो पाई थीं जबकि बहुमत के लिए कम से कम 44 सीटों का होना अनिवार्य था। इसलिए पी.डी.पी. और भाजपा ने जन आकांक्षाओं के आदर के नाम पर गठजोड़ तो कर लिया और सरकार भी बन गई है किन्तु दोनों संगठनों को न केवल गठजोड़ बनाए रखने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा अपितु विरोधियों ने तो अभी से लंगर-लंगोट कसने शुरू कर दिए हैं।

पी.डी.पी. ने अपने घोषणापत्र में कश्मीरियों की भावनाओं को बड़ी सीमा तक अपने साथ मिलाने का प्रयास किया है और पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधारने का नारा भी दिया है। इसके अतिरिक्त कई ऐसी बातें भी उनके घोषणा-पत्र में शामिल हैं जो जम्मू के लोगों के अतिरिक्त राष्ट्रीय स्तर पर भी रास नहीं आती हैं जिनमें सैनिकों के विशेष अधिकारों से संबंधित ‘अफस्पा’ को रद्द करने का मामला भी शामिल है।

पी.डी.पी. की इस सोच के विपरीत भाजपा से संबंध रखने वालों का अपना ही एक बड़ा लक्ष्य रहा है जिसके अनुसार भारत के संविधान की अस्थायी धारा-370 को समाप्त करके जम्मू-कश्मीर राज्य को देश के अन्य भागों के स्तर पर लाना रहा है। यह दृष्टिकोण आज नहीं अपितु 1950 से ही उभर कर सामने आता रहा है, जब यह धारा भारत के संविधान में अस्थायी रूप से शामिल की गई थी। नैशनल कांफ्रैंस भले ही केन्द्र में एन.डी.ए. सरकार का भाग बनी रही किन्तु वह आज भी स्वायत्तता का राग अलापती चली आ रही है। 1953 से पूर्व की स्वायत्तता की बहाली आज भी इस संगठन का बड़ा दृष्टिकोण है। अत: यह स्वाभाविक है कि नैशनल कांफ्रैंस घाटी की आवाज फिर से बनने के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी संगठन पी.डी.पी. के विरुद्ध इस दृष्टिकोण को लेकर कई तरह के संघर्ष शुरू करेगी।

इसी तरह जम्मू में कांग्रेस और अन्य तत्व भी भाजपा को धारा-370 के मामले पर घेरने के लिए अभी से एकजुट होने लगे हैं। अर्थात पी.डी.पी. और भाजपा की राजनीतिक राहें सरल नहीं। दोनों को अपने राजनीतिक विरोधियों से लोहा लेना पड़ेगा और जनता को अपने साथ रखने के लिए कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ेगा।

राजनीतिक कठिनाइयों के अतिरिक्त वित्तीय कठिनाइयों का पहाड़ भी नई सरकार के सामने खड़ा है क्योंकि गत वर्षों के दौरान केन्द्र पर निर्भरता लगातार बढ़ती रही है। भ्रष्टाचार और अन्य कई  कारणों से राज्य की वित्तीय स्थिति बिगड़ती चली गई है और फिर चुनाव से पूर्व पिछली सरकार ने कई ऐसे निर्णय किए हैं जिन पर अमल करने के लिए भारी राशि की आवश्यकता है। इन निर्णयों में नई प्रशासनिक इकाइयों का गठन और सरकारी कर्मचारियों से जुड़े विषय विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आज न केवल कोष खाली है अपितु हजारों करोड़ों की देनदारियां एकत्र हो गई हैं। कर्मचारियों को वेतन नहीं मिल पा रहा, उनके महंगाई भत्ते की किस्तें 1 जनवरी और 1 जुलाई 2014 से बकाया चली आ रही हैं। हजारों दिहाड़ीदारों की सेवाओं को पूर्व सरकार ने नियमित बनाने का निर्णय तो कर दिया किन्तु उनके वेतन का प्रबंध नहीं किया। हजारों दिहाड़ीदार ऐसे हैं जिनका वेतन 2-2 वर्षों से बकाया चला आ रहा है।

दर्जनों विकास परियोजनाएं हाथ में ली गई हैं परन्तु उनका निर्माण कार्य अधूरा पड़ा है और विलम्ब के कारण इन परियोजनाओं की लागत में वृद्धि होती जा रही है। जम्मू-कश्मीर में पनबिजली उत्पादन के अनगिनत साधनों के बावजूद बिजली की आवश्यकता को पूरा करने के लिए 70 प्रतिशत बिजली बाहर से खरीद की जा रही है जिस पर कुल बजट का 8 से 9 प्रतिशत भाग खर्च हो जाता है।

राज्य प्रशासन की स्थिति क्या है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई विभागों में सरकारी कर्मचारियों की भरमार है तो कई विभागों में कर्मचारी ही नहीं हैं। सबसे आश्चर्यजनक बात यह सामने आ रही है कि राज्य के जनसेवा आयोग के 9 सदस्य जिनमें चेयरमैन भी शामिल है, कब से सेवानिवृत्त हो चुके हैं, इसी तरह जवाबदेही आयोग, पिछड़ी जाति आयोग तथा कई अन्य संस्थान बिगड़ी स्थिति में हैं। अब देखना यह है कि नई सरकार के नेता इन कठिनाइयों पर सफलता कैसे प्राप्त करते हैं? 

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