कानून की दहलीज पर ‘गवाहों का दर्द’

Edited By ,Updated: 04 Mar, 2015 12:29 AM

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अपराध से लेकर सजा तक एक बहुत लम्बा और बीहड़ रास्ता होता है जिसमेें से निकलते-निकलते कई बार न्याय अपना दम तोड़ देता है। अपराधी को सजा दिलवाने के लिए साक्ष्यों की आवश्यकता होती है

(आर.एम. शर्मा) अपराध से लेकर सजा तक एक बहुत लम्बा और बीहड़ रास्ता होता है जिसमेें से निकलते-निकलते कई बार न्याय अपना दम तोड़ देता है। अपराधी को सजा दिलवाने के लिए साक्ष्यों की आवश्यकता होती है तथा गवाह जिसके सामने कोई घटना घटी हो, वह सजा दिलवाने में एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम करता है। सबसे पहले तो गवाह द्वारा पुलिस के सामने दिया गया बयान कानूनी तौर पर मान्य नहीं है। यह व्यवस्था अंग्रेजों ने अपनी सुविधा के लिए या फिर पुलिस को उनकी मनमर्जी के अनुसार प्रयोग करने के लिए बनाई थी जो आज तक भी निरन्तर चल रही है। पुलिस किसी गवाह द्वारा दिए गए बयान पर उसके हस्ताक्षर नहीं करवा सकती।

यह ठीक है कि पुलिस किसी अनपढ़ व्यक्ति को डरा-धमका कर या फिर किसी पूर्वाग्रह के कारण गवाह का बयान मर्जी से लिख सकती है मगर बयान देने वाले के पास उसके बयान की प्रतिलिपि होगी तो वह अपने बयान की तसदीक उच्चाधिकारियों या फिर अंतत: न्यायालय में करवा सकता है तथा वह अपना वास्तविक बयान देकर अपराधी को मिलने वाले संशय के लाभ को लेने में सफल नहीं  होने देगा।

गवाह जो कि किसी मुकद्दमे में अपराधी को सजा दिलाने का काम करता है, के साथ क्या गुजरती है या फिर उसके साथ कैसा व्यवहार होता है यह तो वह खुद बयान कर सकता है। मगर उसकी गुहार व पुकार की आवाज किसी भी संस्था द्वारा सुनी नहीं जाती। सबसे पहले गवाह की जरूरत पुलिस को पड़ती  है क्योंकि उसके बयान के बिना घटना को सिद्ध करना असंभव होता है। चाहिए तो यह कि किसी भी गवाह का बयान घटनास्थल या फिर उसके घर पर जा कर ही लिया जाए पर न जाने उसे कितनी बार थाने/चौकी में आना पड़ता है तथा उसका दर्द और भी अधिक तब बढ़ जाता है जब उसे वांछित उचित व्यवहार नहीं मिलता। कई बार  तो गवाह को यह पता नहीं होता है कि उसका बयान पुलिस द्वारा क्या लिखा गया है।

ऐसी भी घटनाएं हुई हैं जब गवाहों को उच्च न्यायालयों में जाकर यह गुहार लगानी पड़ती है कि अमुक बयान उसका नहीं है। ऊपर से उसके बैठने की उचित व्यवस्था नहीं होती और न हीं पीने के पानी इत्यादि की उचित सुविधा होती है। उसकी सोच पर नकारात्मक प्रभाव तब पड़ता है जब उसके बयानों पर हस्ताक्षर नहीं करवाए जाते तथा वह पुलिस के प्रति अपना नकारात्मक दृष्टिकोण अपना लेता है। इसी तरह चाहे विधि-विधानों में वर्णित है कि बच्चों और महिलाओं का बयान उनके घर पर ही लिखा जाए मगर फिर भी उन्हें थाने/चौकियों में आने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

दूसरा पड़ाव अभियोजन पक्ष का आरंभ होता है। किसी भी मुकद्दमे को न्यायालय में प्रस्तुत करने व साक्ष्यों व गवाहों के बयानों को न्यायालय के समक्ष रखने की जिम्मेदारी सरकारी वकीलों (अभियोजन पक्ष) की होती है। न्यायालयों में प्रतिपक्ष यानी कि अपराधी के वकील कई बार ऐसे प्रश्न पूछते हैं जिसका उस घटना से कोई संबंध नहीं होता। उस पर प्रश्रों की बौछार कर दी जाती है तथा उसे अपने वास्तविक बयान बदलने की स्थिति में ला दिया जाता है। सरकारी वकील भी कई बार अपनी चुप्पी साधे खड़े रहते हैं तथा अप्रासंगिक प्रश्रों को न पूछने के बारे मेंं  न्यायालय से गुहार नहीं करते। गवाहों को न्यायालयों में अपने बयान दर्ज करवाने हेतु बार-बार जाना पड़ता है। प्रतिपक्ष के वकील छोटी-छोटी बातों को लेकर तारीख पर तारीख लेते रहते हैं जो कि गवाह को अनुपस्थित होने के लिए या फिर अपने बयान से विचलित होने के लिए मजबूर कर देते हैं। अंत में जब मुकद्दमा फेल हो जाता है तो इसका ठीकरा पुलिस के सिर पर ही फोड़ दिया जाता है।

इन तथ्यों से अनुमान लगाया जा सकता है कि शोषित व्यक्ति  गवाहों की दयनीय स्थिति के फलस्वरूप किस तरह अपनी बदहाली पर आंसू बहाने के लिए मजबूर हो जाता है। न्यायालयों में मुकद्दमे वर्षों तक लंबित पड़े रहते हैं जिसके कारण कुछ भी हो मगर गवाह इतने लम्बे अंतराल तक अपने द्वारा पुलिस को दिए गए बयानों को याद रखने में सक्षम नहीं होता या फिर परिस्थितियों को देखता हुआ अपराधी की भाषा बोलना आरंभ कर देता है।

जहां तक गवाहों की सुरक्षा की बात है उनकी सुरक्षा के लिए व्हिसल ब्लोअर एक्ट बनाया गया है मगर ऐसे कई उदाहरण हैं कि अपराधी द्वारा गवाहों को बयान बदलने के लिए मजबूर कर दिया जाता है या फिर कई बार उन्हें अपनी किंदगी से भी हाथ धोना पड़ जाता है।

आज शायद यही कारण है कि दुर्घटना स्थल पर कोई भी व्यक्ति रुकना नहीं चाहता क्योंकि वह गवाह बन कर अपना शोषण नहीं करवाना चाहता। गवाहों की इस दयनीय स्थिति के कारण शोषित व्यक्ति यानी कि फरियादी को ही अपनी बदनसीबी पर आंसू बहाने पड़ते हैं। गवाह तो मुकद्दमे की जान होता है। वह पीड़ित व्यक्ति के लिए एक मसीहा है। वह एक गौरवमयी व्यक्ति है तथा उसे एक प्रतिष्ठित व्यक्ति की संज्ञा दी जानी चाहिए। उसको थाने/चौकी व न्यायालय में उचित सम्मान मिलना चाहिए। न्यायालय में उसे मुलजिम की तरह आवाज देकर प्रवेश होने के लिए नहीं बुलाना चाहिए। यदि गवाहों को उचित सम्मान दिया जाए तो हर नागरिक गवाह बन कर अपराधियों को सलाखों के पीछे पहुंचाने में अपना योगदान दे सकता है। गवाहों के प्रति अंग्रेजों के समय से चली आ रही सोच व परम्परा को बदलने की आवश्यकता है।

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