समाज को ही करना होगा ‘दहेज समस्या’ का हल

Edited By ,Updated: 05 Mar, 2015 01:49 AM

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दहेज को एक सामाजिक बुराई माना जाता है, इसलिए इसका मूल उपाय तो समाज को ही करना होगा। विद्यालयों और कालेजों की तो इस सम्बन्ध में विशेष भूमिका हो सकती है। युवा छात्र-छात्राओं को ...

(विमल वधावन) दहेज को एक सामाजिक बुराई माना जाता है, इसलिए इसका मूल उपाय तो समाज को ही करना होगा। विद्यालयों और कालेजों की तो इस सम्बन्ध में विशेष भूमिका हो सकती है। युवा छात्र-छात्राओं को लगातार दहेज प्रथा के विरुद्ध संकल्प दिलाए जाएं तो नियमित ऐसे कार्यक्रमों और अभियानों का अवश्य ही युवा मस्तिष्क पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। विद्यालयों और कालेजों की सहायता के लिए गैर-सरकारी सामाजिक संस्थाओं तथा कार्यकत्र्ताओं को इस अभियान में विशेष सहायता करनी चाहिए।

दहेज के विरोध के साथ-साथ छात्र-छात्राओं को सुखी गृहस्थ जीवन के उपाय तथा महत्व भी बताए जाने चाहिएं। पति-पत्नी के बीच प्रेम ही सुखी जीवनका मूल आधार है। धन तो सबको अपनी-अपनी किस्मत के अनुसार मिल ही जाता है, परन्तु एक बार यदिप्रेम की डोर टूट जाती है तो सारा जीवन अस्त-व्यस्त ही रहता है। युवा मस्तिष्क को एक पत्नी औरएक पतिव्रत का महत्व बताने की भी आवश्यकता है। आजकल पराए पुरुषों और पराई स्त्रियों के साथ अनैतिक सम्बन्ध भी परिवारों के टूटने का मुख्य कारण हैं।

भारतीय समाज में दहेज का रोग बढ़ता जा रहा है।  दहेज मृत्यु से सम्बन्धित कड़े कानून होने के बावजूद भी इस घरेलू अपराध की दर में कमी नहीं आ पा रही। भारतीय दंड संहिता की धारा-304बी, 498ए, साक्ष्य अधिनियम की धारा-113ए तथा 113बी दहेज निरोधक कानून की धारा-3, 4 तथा 6 के अंतर्गत दहेज मृत्यु की सजा न्यूनतम 7 वर्ष तथा अधिकतम आजीवन कारावास घोषित करती है, परन्तु सख्त कानूनों और अनेकों निर्णयों के बावजूद जब घरों में दहेज की मांग को लेकर वर-पक्ष के लोग वधू को तथा उसके मायके वालों को परेशान करते हैं तो वे यह भूल जाते हैं कि इस तनावपूर्ण वातावरण के चलते यदि उनकी बहू ने आवेश में आकर आत्महत्या जैसा कोई कदम उठा लिया तो दहेज मांग से जुड़े सभी परिजनों की खैर नहीं होगी। यदि वधू की मृत्यु में पति या उसके परिजनों का हाथ सिद्ध हो गया तब तो सीधा धारा-302 अर्थात् कत्ल का मुकद्दमा भी सिद्ध हो सकता है। वैसे कुछ भी हो, दहेज मृत्यु के मामले अक्सर कानून के शिकंजे से बच नहीं पाते।

पंजाब के सुल्तान सिंह का विवाह लवजीत कौर के साथ 27 फरवरी, 1990 को हुआ। विवाह के 4 वर्ष के बाद 17 जून, 1994 को लवजीत कौर की जलने से मृत्यु हो गई। सुल्तान सिंह तथा उसकी मां पर मुकद्दमा चलाया गया। लवजीत के भाई गुरमीत तथा उसके पिता उजागर सिंह ने गवाही दी कि उन्होंने सुल्तान सिंह तथा उसकी मां को लवजीत पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगाते हुए देखा है। लवजीत को मृत्यु से पहले तक दहेज की मांगों के न पूरा होने पर तंग किया जाता रहा है। 5-6 महीने पूर्व ही भूमि खरीदने के लिए सुल्तान सिंह ने 30 हजार रुपए की मांग की थी। यह पूरी न होने पर वह बहुत गुस्से में था। सुल्तान सिंह ने अपनी सुरक्षा में अदालत के सामने वक्तव्य देते हुए कहा कि लवजीत की मृत्यु स्टोव के फटने से हुई थी।

सत्र न्यायालय ने कहा कि स्टोव के फटने की घटना तो किसी प्रकार से भी सिद्ध नहीं होती क्योंकि जांच करने वाले पुलिस दल को ऐसा कोई प्रमाण प्राप्त ही नहीं हुआ। परन्तु लवजीत के भाई और पिता का वक्तव्य भी विश्वसनीय नहीं है कि उन्होंने सुल्तान सिंह तथा उसकी मां को लवजीत पर मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगाते हुए देखा है। इन दोनों तथ्यों के न सिद्ध होने के बावजूद यह निश्चित है कि लवजीत की मृत्यु विवाह के 7 वर्ष के भीतर हुई है। वैसे जांच दल को घटना स्थल से मिट्टी के तेल का कैन तथा आधा जला गद्दा मिला था।

भाई तथा पिता के वक्तव्यों से यह भी सिद्ध होता है कि दहेज की मांग पूरी न होना भी सुल्तान सिंह के क्रोध का कारण था। इसके अतिरिक्त लवजीत के बिस्तर पर बिछा गद्दा आधा जला हुआ था और उसमें मिट्टी के तेल की गन्ध पाई गई। इसके अतिरिक्त चिकित्सक  डा. एस. के. गुप्ता का वक्तव्य था कि लवजीत को जब अस्पताल लाया गया तो वह वक्तव्य देने की हालत में नहीं थी। उसे लाने वाले डा. अमरनाथ ने उन्हें बताया था कि यह घटना स्टोव के फटने से हुई है। अदालत ने चिकित्सक की इन बातों को घटना के तथ्य के रूप में स्वीकार करने से इन्कार कर दिया क्योंकि चिकित्सक केवल मृत्यु के तकनीकी कारणों का गवाह होता है, घटना के समय घटित हुए तथ्यों का नहीं।

इन परिस्थितियों में सत्र न्यायालय ने सुल्तान सिंह को 7 वर्ष कारागार की सज़ा सुनाई। सत्र न्यायालय के इस निर्णय के विरुद्ध सुल्तान सिंह ने पंजाब- हरियाणा उच्च न्यायालय में अपील की। उच्च न्यायालय से भी राहत न मिलने पर उसने सर्वोच्च न्यायालय में भी  अपनी  किस्मत आजमाई परन्तु दहेज मृत्यु के कड़े कानूनी शिकंजे के कारण उसकी अपील सर्वोच्च न्यायालय से भी अस्वीकार हो गई।

कर्नाटक की लीलावती को भी दहेज रूपी पति नामक राक्षस खा गया। 16 अप्रैल, 1989  को विवाहित हुई लीलावती बेंगलूर में नौकरी भी कर रही थी। विवाह से पूर्व वर और वधू पक्ष में 15 हजार रुपए नकद तथा सोने और चांदी के आभूषणों के रूप में दहेज पर सहमति बनी थी। विवाह में नकद राशि तो दे दी गई, परन्तु आभूषणों में सोने के कंगन नहीं दिए जा सके। बस इस वजह से पति ए.के. देवईया ने लीलावती को तंग करना शुरू कर दिया। उसे शराब पीने की भी भयंकर लत थी।

विवाह के 11 महीने बाद ही लीलावती ने प्रात: 5 बजे अपने शरीर को अग्नि के हवाले कर दिया। पुलिस ने मुकद्दमा दर्ज किया। तथ्यों, कानूनों और वकीलों तथा जजों के तर्क-वितर्क के बीच सत्र न्यायालय ने तो देवईया को आरोपमुक्त कर दिया, परन्तु सरकार द्वारा उच्च न्यायालय में अपील किए जाने के बाद  कानून ने अपना रंग दिखाया और देवईया को 7 साल की सजा तथा समूची दहेज राशि तथा आभूषण लीलावती के परिजनों को लौटाने का आदेश हुआ। देवईया भी अपनी किस्मत आजमाने सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, परन्तु यहां भी कानून का शिकंजा ढीला नहीं हुआ।

सर्वोच्च न्यायालय ने साक्ष्य अधिनियम की धारा-113ए तथा 113बी को दहेज मृत्यु के मामलों में सदैव अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है। इन प्रावधानों का सार यह है कि यदि मृत्यु किसी अप्राकृतिक कारण से विवाह के 7 वर्ष के भीतर होती है तो अदालत यह स्थापित मानकर चलेगी कि वधू को आत्महत्या के लिए उकसाया गया है। इसके बाद दायित्व वर पक्ष पर आ जाता है कि वह यह सिद्ध करे कि दहेज या कोई अन्य अत्याचार वधू पर नहीं किया गया। इन परिस्थितियों में वधू के परिजनों जैसे-भाई, पिता, माता या बहन आदि का वक्तव्य आग में घी का काम करता है और वर पक्ष के ऊपर कानूनी शिकंजा मजबूती के साथ कसने में सहायक होता है।

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